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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २
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भावार्थ - बहुत से पुरुष ऐसे भी देखे जाते हैं - जो तिरस्कार आदि के बिना ही तथा धन नाश, पुत्र नाश, पशु नाश आदि दुःख के कारणों के बिना ही हीन, दीन दुःखित और चिन्ताग्रस्त होकर आर्तध्यान करते रहते हैं । वे विवेकहीन पुरुष कभी भी धर्मध्यान नहीं करते हैं । निःसन्देह ऐसे पुरुषों के हृदय में क्रोध, मान, माया और लोभ का प्राबल्य रहता है । ये चार भाव ही उनकी उक्त अवस्था के कारण हैं । ये चारों भाव आत्मा से उत्पन्न होने के कारण आध्यात्मिक कहलाते हैं । ये मन को दूषित करने वाले और विचार को मलिन करने वाले हैं । जिस पुरुष में ये प्रबल होकर रहते हैं उसको आध्यात्मिक सावध कर्म का बन्ध होता है, यही आठवें क्रियास्थान का स्वरूप है ।। २४॥ - विवेचन - क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार आध्यात्मिक दोष हैं। इन दोषों से उत्पन्न होने के कारण इसको आध्यात्मिक क्रिया स्थान कहा है। ये क्रोधादि तो प्रकट दिखाई नहीं देते किन्तु इन से उत्पन्न होने वाली आर्तध्यान रूप हीन दीन आदि अवस्था प्रकट दिखाई देती है। ये आर्तध्यान रूप होने से कर्म बन्धन का कारण है। __ अहावरे णवमे किरियट्ठाणे माण-वत्तिए त्ति आहिज्जइ । से जहा णामए केइ पुरिसे जाइ-मएण वा, कुल-मएण वा, बल-मएण वा, रूव-मएण वा, तव-मएण वा, सुय-मएण वा, लाभ-मएण वा, इस्सरिय-मएण वा, पण्णा-मएण वा, अण्णयरेण वा, मय-ट्ठाणेणं मत्ते समाणे परं हीलेइ, शिंदेइ, खिंसइ, गरहइ,,परिभवइ, अवमण्णेइ इत्तरिए अयं, अहमंसि पुण विसिट्ठ-जाइ-कुल-बलाइ-गुणोववेए-एवं अप्पाणं समुक्कस्से, देह-च्चुए कम्म-बितिए अवसे पयाइ ।तं जहा-गब्भाओ गब्भं, जम्माओ जम्मं, माराओ मारं णरगाओ णरगं, चंड़े, थद्धे, चवले, माणी यावि भवइ। एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावजं ति आहिज्जइ । णवमे किरिय-ट्ठाणे माणवत्तिए त्ति आहिए ॥२५॥
कठिन शब्दार्थ - माणवत्तिए - मान प्रत्ययिक, इस्सरियमएण - ऐश्वर्य मद से, पण्णामएणप्रज्ञा (बुद्धि) मद से, मयट्ठाणेण - मद स्थान से, परिभवइ - तिरस्कार करता है, अवमण्णेइ - अवज्ञा करता है, विसिट्ठजाइकुलबलाइगुणोववेए- विशिष्ट जाति कुल बल आदि गुणों से युक्त, समुक्कसे - उत्कृष्ट मानता है, गम्भाओ - एक गर्भ से, गब्भं - दूसरे गर्भ को, चंडे - चंड-क्रोधी, थद्धे - स्तब्ध-अभिमानी, चवले - चपल ।
. भावार्थ - जाति, कुल, बल, रूप, तप, शास्त्र, लाभ, ऐश्वर्य और प्रज्ञा के मद से मत्त होकर जो पुरुष दूसरे प्राणियों को तुच्छ गिनता है तथा अपने आप को सबसे श्रेष्ठ मानता हुआ दूसरे का तिरस्कार करता है उसको मान प्रत्ययिक कर्म का बन्ध होता है । ऐसा पुरुष इस लोक में निन्दा का पात्र होता है और परलोक में उसकी दशा बुरी होती है। वह बार बार जन्म लेता है और मरता है तथा एक नरक से
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