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________________ अध्ययन २ विवेचन - इसके पूर्व जो पाँच क्रियास्थान कहे गये हैं उनमें प्रायः प्राणियों का घात होता है इसलिये उनको दण्डसमादान कहा है परन्तु छठे क्रियास्थान से लेकर १३ वें क्रियास्थान तक के भेदों में प्रायः प्राणियों का घात नहीं होता है अतः इनको दण्डसमादान न कह कर क्रियास्थान कहा है । ___अहावरे सत्तमे किरिय-ट्ठाणे अदिण्णादाण-वत्तिए त्ति आहिज्जइ । से जहा णामए केइ पुरिसे आयहेडं वा जाव परिवार-हेउं वा सयमेव अदिण्णं आदियइ, अण्णेण वि अदिण्णं आदियावेइ, अदिण्णं आदियंतं अण्णं समणुजाणइ, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावजं ति आहिज्जइ । सत्तमे किरिय-ट्ठाणे अदिण्णादाण-वत्तिए त्ति आहिए ॥२३॥ कठिन शब्दार्थ - अदिण्णादाणवत्तिए - अदत्तादान प्रत्ययिक अदिण्णं - अदत्त, आदियइ - ग्रहण करता है, आदियावेइ - ग्रहण करवाता है, आदियंतं - ग्रहण करते हुए को। .. भावार्थ - मालिक के द्वारा न दी हुई वस्तु को ले लेना अद्त्तादान कहलाता है । इसी को चोरी कहते हैं । जो पुरुष अपने स्वार्थ के लिए अथवा अपने परिवार आदि के लिए मालिक की आज्ञा के बिना उसकी वस्तु को ले लेता है अथवा दूसरे के द्वारा ग्रहण करवाता है तथा ऐसा कार्य करने वालों को अच्छा जानता है उसको अदत्तादान यानी चोरी करने का पाप लगता है । यही सातवें क्रियास्थान का स्वरूप है। - विवेचन - वस्तु के स्वामी की आज्ञा बिना वस्तु को ले लेना अदत्तादान कहलाता है। इससे उसके स्वामी को दुःख होता है। इसलिये उसको क्रिया स्थान (पापस्थान) कहा है। .. अहावरे अट्ठमे किरिय-ट्ठाणे अज्झत्थ-वत्तिए त्ति आहिज्जइ । से जहा णामए केइ पुरिसे णत्थि णं केइ किंचि विसंवादेइ सय-मेव हीणे, दीणे, दुडे, दुम्मणे ओहय-मणसंकप्पे, चिंता-सोग-सागर-संपविटे, करयल-पल्हत्थ-मुहे, अट्टझाणोवगए, भूमि-गय-दिट्ठिए, झियाइ, तस्स णं अज्झत्थया आसंसइया चत्तारि ठाणा एवमाहिति, तंजहा - कोहे, माणे, माया, लोहे, अज्झत्थ-मेव कोह-माण-मायालोहे, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावजं ति आहिज्जइ । अट्ठमे किरिय-ट्ठाणे अज्झत्थवत्तिए त्ति आहिए ॥२४॥ . कठिन शब्दार्थ - अज्झत्थवत्तिए - अध्यात्म प्रत्ययिक, विसंवादेइ - क्लेश देने वाला, दुम्मणे - दुर्मनस्क, ओहयमणसंकप्पे - मन में बुरा संकल्प करने वाला, चिंतासोगसागरसंपविटे - चिंता और शोक के सागर में डूबा हुआ, करयलपल्हत्य मुहे अट्ठझाणोवगए - हथेली को मुंह पर रख आर्तध्यान करता हुआ, भूमिगयदिटिए - पृथ्वी को देखते हुए, आसंसइया - निःसंदेह । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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