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________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २ HHHHHHHHHH अहावरे तच्चे दंड-समादाणे हिंसा-दंड-वत्तिए त्ति आहिज्जइ। से जहा णामए केइ पुरिसे ममं वा, ममिं वा, अण्णं वा, अणि वा, हिंसिसुवा, हिंसइ वा, हिंसिस्सइ वा, तं दंडं तस-थावरेहिं पाणेहिं सयमेव णिसिरइ, अण्णेण वि णिसिरावेइ, अण्णं पि णिसिरंतं समणुजाणइ हिंसा-दंडे । एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज ति आहिज्जइ। तच्चे दंड-समादाणे हिंसा-दंड-वत्तिए त्ति आहिए ॥१९॥ कठिन शब्दार्थ - हिंसादंडवत्तिए - हिंसा दण्ड प्रत्ययिक, ममि - मेरे संबंधी को, अण्णिं - दूसरे के संबंधी को, हिंसिसु- मारा था, हिंसइ - मारता है, हिंसिस्सइ - मारेगा । भावार्थ - बहुत से पुरुष ऐसे हैं जो दूसरे प्राणियों को इस आशंका से मार डालते हैं कि - "यह जीवित रह कर मेरे को न मार डाले" । जैसे कंस ने देवकी के पुत्रों को उनके द्वारा भविष्य में अपने नाश की शङ्का करके मार डाला था तथा बहुत से अपने सम्बन्धी के घात के क्रोध से प्राणियों का घात करते हैं जैसे परशुराम ने अपने पिता के घात से क्रोधित होकर कार्तवीर्य का घात किया था । बहुत से मनुष्य, सिंह और सर्प आदि प्राणियों का घात इसलिये कर डालते हैं कि - "यह जीवित रहकर दूसरे प्राणियों का घात करेगा"। इस प्रकार जो पुरुष किसी त्रस या स्थावर प्राणी का स्वयं घात करता है अथवा दूसरे के द्वारा घात कराता है अथवा प्राणिघात करते हुए को अच्छा मानता है उसको हिंसाहेतुक सावध कर्म का बन्ध होता है यही तीसरे क्रियास्थान का स्वरूप है ।। १९॥ विवेचन - हिंसा मन, वचन, काया इस प्रकार तीन योग से और करना, करवाना और अनुमोदन करना इस प्रकार तीन करण से होती है तथा काल सम्बन्धी भूतकाल, वर्तमान काल, भविष्यकाल इन तीन काल सम्बन्धी होती है। इस प्रकार हिंसा के ३४३४३-२७ भेद हो जाते हैं। इन २७ को क्रोध, मान, माया लोभ इन चार से गुणा करने पर १०८ भेद हो जाते हैं। इस तरह १०८ प्रकार से की हुई हिंसा को क्षय करने के लिये नमस्कार महामंत्र की माला फेरी जाती है। पूर्वाचार्यों ने माला के १०८ मणिके रखें हैं। वे १०८ मणिये इस बात को सूचित करते हैं कि हमको १०८ बार फिराने से १०८ प्रकार से बन्धा हुआ कर्म क्षय हो जाता है। दूसरे आचार्यों की मान्यता के अनुसार पञ्च परमेष्ठी के १०८ गुण होते हैं। उन गुणों को प्राप्त करने के लिये माला के मणिये भी १०८ रखे गये हैं। अहावरे चउत्थे दंड-समादाणे अकम्हा-दंड-वत्तिए त्ति आहिज्जइ । से जहा णामए केइ पुरिसे कच्छंसि वा जाव वण-विदुग्गंसि वा मियवत्तिए मिय-संकप्पे मिय-पणिहाणे मिय-वहाए गंता एए मिय त्ति काउं अण्णयरस्स मियस्स वहाए उसुं आयामेत्ता णं णिसिरेग्जा; 'समियं वहिस्सामि'-त्ति कट्ट तित्तिरं वा, वट्टगं वा, चडगं वा, लावगं वा, कवोयगं वा, कविं वा, कविंजलं वा, विधित्ता भवइ, इह खलु से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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