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अध्ययन २
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वलयंसि वा, मंसि वा, गहणंसि वा, गहण-विदुग्गंसि वा, वणंसि वा, वणविदुग्गंसि वा, पव्वयंसि वा, पव्वय-विदुग्गंसि वा, तणाई ऊसविय ऊसविय सयमेव अगणि-कायं णिसिरह, अण्णेण वि अगणि-कायं णिसिरावेड, अण्णं वि अगणिकायं णिसिरंतं समणुजाणइ अणट्ठा-दंडे । एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जं ति आहिज्जइ ।दोच्चे दंड-समादाणे अणट्ठा दंड वत्तिए त्ति आहिए ॥१८॥ - कठिन शब्दार्थ - अणट्ठादंडवत्तिए - अनर्थदण्ड प्रत्ययिक, अच्चाए - अर्चा शरीर के लिए, अजिणाए - चर्म के लिए सोणियाए - रक्त के लिए, हिययाए - हृदय के लिये, पिच्छाए - पंख के लिये, विसाणाए - विषाण के लिये, णहाए - नख के लिए, ण्हारुणिए- स्नायु (नाड़ी) के लिए, अट्ठीए - हड्डी के लिए, अट्ठिमिंजाए - अस्थि मज्जा के लिए, अगारपरिवूहणयाए - घर को बढाने के लिये, उज्झिउं - विवेक को छोड़, वेरस्स - वैर का, आभागी- भागी, कच्छंसि- कछार नदी के तट पर, वणविदुग्गंसि- दुर्गम वन में, ऊसविय - ढेर कर ।
__ भावार्थ - इस जगत् में ऐसे भी पुरुष होते हैं जो बिना प्रयोजन ही प्राणियों का घात किया करते हैं उनको अनर्थ दण्ड देने का पाप बन्ध होता है ऐसे पुरुष महा मूर्ख हैं क्योंकि - वे अपने शरीर की रक्षा के लिये अथवा अपने पुत्र पशु आदि के पोषण के लिये प्राणियों का घात नहीं करते किन्तु बिना प्रयोजन कौतुक के लिये प्राणिघात जैसा निन्दित कर्म करते हैं । ऐसे पुरुष निरर्थक प्राणियों के साथ वैर के पात्र होते हैं अतः इससे बढ़कर दूसरी मूर्खता क्या हो सकती है ? इस दूसरे क्रियास्थान का अभिप्राय बिना प्रयोजन प्राणियों को दण्ड देना है सो इस सूत्र में कहा है । कोई पुरुष मार्ग में चलते समय बिना ही प्रयोजन वृक्ष के पत्तों को तोड़ गिराता है तथा चपलता के कारण दूसरे वनस्पतियों को भी उखाड़ फेकता है तथा बिना ही प्रयोजन नदी, तालाब और जलाशयों के तट पर बैठकर पानी में कङ्कर, पत्थर फेंका करते हैं। जल के जीवों को कष्ट पहुँचाया करते हैं तथा पर्वत, वन आदि में व्यर्थ ही आग लगा देता है, यद्यपि उसे इसकी कोई आवश्यकता नहीं होती तथापि वह अपनी मूर्खता के कारण ऐसा करके प्राणियों को अनर्थ दण्ड देने का पाप करता है तथा व्यर्थ ही वह अनेक जन्मों के लिये प्राणियों के वैर का पात्र होता है ।। १८॥
‘विवेचन - यहाँ हिंसा के दो भेद किये गये हैं। अर्थ दण्ड और अनर्थ दण्ड। अर्थ दण्ड अर्थात् किसी प्रयोजन से किये जाने वाली हिंसा को अर्थदण्ड कहते हैं। किसी भी प्रयोजन के बिना केवल आदत, कौतुक, कुतूहल, मनोरंजन और व्यसन पोषण आदि से प्रेरित होकर किसी भी त्रस या स्थावर जीव की, किसी भी रूप में की जाने वाली हिंसा के निमित्त से जो पाप कर्म बन्ध होता है उसे "अनर्थदण्ड प्रत्ययिक क्रियास्थान" कहते हैं। वीतराग सिद्धान्त के अनुसार अर्थ दण्ड की अपेक्षा अनर्थ दण्ड क्रिया स्थान अधिक पापकर्म बन्धक होता है।
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