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________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २ जांघ, तया - त्वचा, छाया - कांति, सोय - श्रोत्र, वयाउ - अधिक अवस्था होने पर, परिजूरइ - जीर्ण होता जाता है, सुसंधिओ - सुघटित (दृढ), पलिया - पलित-श्वेत । भावार्थ - मनुष्य मोह में पड़ कर दूसरी वस्तु को अपना मानता है इसीलिये उसे नाना प्रकार के कष्ट सहन करने पड़ते हैं और वह अपने कल्याण के साधन से वञ्चित रह जाता है । मनुष्य अपने खेत मकान पशु और धन धान्य आदि सम्पत्ति को अपने सुख के साधन मान कर इनकी प्राप्ति के लिये तथा प्राप्त हुए की रक्षा के लिये जी जान लड़ा कर परिश्रम करता है परन्तु जब उसके ऊपर किसी रोग आदि का आक्रमण होता है तो उसके खेत आदि सम्पत्ति उसको रोग से मुक्त करने में समर्थ नहीं होती है । मनुष्य अपने माता पिता भाई बहिन और स्त्री पुत्र आदि परिवार वर्ग को अपने सुख का साधन समझता है और उसे सुखी करने के लिये विविध कष्ट को सहन कर धनादि उपार्जन करता है परन्तु वह परिवार वर्ग भी उसके रोग को दूर करने तथा उसे बाँट कर ले लेने के लिये समर्थ नहीं होते किन्तु अकेले उसे रोग की पीड़ा सहन करनी पड़ती है। मनुष्य अपने हाथ पैर आदि अंगों को तथा रूप बल और आयु आदि को सबसे अधिक आनन्द का कारण मानता है और इनका उसको बड़ा ही अभिमान रहता है परन्तु जब अवस्था ढल जाती है । तब उसके हाथ पैर आदि अंग ढीले पड़ जाते हैं शरीर की कान्ति फीकी हो जाती है और वह बलहीन तथा इन्द्रिय शक्ति से रहित हो जाता है। अन्त में आयु पूरी होने पर वह इस शरीर को छोड़ कर अकेला ही परलोक में जाता है और वहाँ वह अपने शुभाशुभ कर्म का फल अकेले भोगता है। उस समय उसकी सम्पत्ति, परिवार तथा शरीर आदि कोई भी साथ नहीं होते। अतः बुद्धिमान् पुरुष को धन, धान्य, मकान और खेत आदि सम्पत्ति तथा माता पिता स्त्री पुत्र आदि परिवार के ऊपर ममता को त्याग कर आत्म कल्याण का साधन करना चाहिये। मनुष्य रात दिन जिस सम्पत्ति के लिये नाना प्रकार का कष्ट सहन करता है वह परलोक में काम नहीं आती है इतना ही नहीं किन्तु इस लोक में भी वह स्थिर नहीं रहती है । बहुत से लोग धन सञ्चय करके भी फिर दरिद्र हो जाते हैं उनकी सम्पत्ति उन्हें छोड़ कर चली जाती है कभी ऐसा भी होता है कि सम्पत्ति को उपार्जन करने के पश्चात् उसका भोग किये बिना ही मनुष्य की मृत्यु हो जाती है ऐसी दशा में उस पुरुष को सम्पत्ति उपार्जन करने का कष्ट ही हाथ आता है सुख नहीं मिलता है, सुख तो दूसरे प्राप्त करते हैं अतः ऐसी अस्थिर सम्पत्ति के लोभ में पड़ कर अपने जीवन को कल्याण से वञ्चित रखना विवेकी पुरुष का कर्त्तव्य नहीं है । । जिस प्रकार सम्पत्ति चञ्चल है इसी तरह परिवार वर्ग का सम्बन्ध भी अस्थिर है । परिवार के साथ वियोग अवश्य होता है कभी तो मनुष्य परिवार को शोकाकुल बनाता हुआ स्वयं पहले मर जाता है और कभी परिवार वाले पहले मरकर उसे शोकसागर में गिरा देते हैं । अतः अतिचञ्चल सम्पत्ति तथा परिवार वर्ग के मोह में फंस कर कौन विवेकी पुरुष अपने कल्याण के साधन को त्याग सकता है ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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