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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २
विप्पजहित्ता भुज्जो परलोइयत्ताए पच्चायंति, ते पाणा वि वुच्चंति, ते तसा वि वुच्चंति, ते महाकाया, ते चिरट्ठिइया ॥ ७६ ॥
कठिन शब्दार्थ - तससंभारकडेणं - त्रससंभार कृत-त्रस नाम कर्म के फल का अनुभव करने से, अब्भुवयं - अभ्युपगत-स्वीकृत, पलिक्खीणं - परिक्षीण, थावसंभारकडेणं - स्थावर संभारं कृत।
भावार्थ - उदक पेढाल पुत्र ने भगवान् गौतम स्वामी से यह प्रश्न किया था कि - जो श्रावक त्रस प्राणी के घात का त्याग करके भी स्थावर काय में उत्पन्न हुए उसी प्राणी को मारता है तो उसका व्रतभङ्ग क्यों नहीं हो सकता है ? जो मनुष्य नागरिक को न मारने की प्रतिज्ञा करके नगर से बाहर गये हुए उस नागरिक पुरुष की हत्या करता है तो उसकी प्रतिज्ञा जैसे भङ्ग हो जाती है उसी तरह त्रस काय को न मारने की प्रतिज्ञा किया हुआ श्रावक यदि स्थावर काय में गये हुए उस त्रस प्राणी का घात करता है तो उसकी प्रतिज्ञा भङ्ग हो जाती है यह क्यों न माना जावे ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् गौतम स्वामी कहते हैं कि - हे उदक ! जीव गण अपने कर्मों का फल भोगने के लिये जब त्रस पर्याय में आते हैं तब उनकी त्रस संज्ञा होती है और वे जब अपने कर्मों का फल भोगने के लिये स्थावर पर्याय में जाते हैं तब उनकी स्थावर संज्ञा होती है इस प्रकार जीव कभी त्रस पर्याय को त्याग कर स्थावर पर्याय को प्राप्त करते हैं और कभी स्थावर पर्याय को त्याग कर त्रस पर्याय को प्राप्त करते हैं अतः जो श्रावक त्रस प्राणी को मारने का त्याग करता है वह त्रस पर्याय में आये हुए जीव को ही मारने का त्याग करता है परन्तु स्थावर पर्याय के घात का त्याग नहीं करता है इसलिये स्थावर पर्याय के घात से उसके व्रत का भङ्ग किस तरह हो सकता है ? क्योंकि स्थावर पर्याय के घात का त्याग उसने नहीं किया है। तुमने जो नागरिक का दृष्टान्त देकर स्थावर पर्याय के घात से त्रस प्राणी के घात का त्याग करने वाले पुरुष की प्रतिज्ञा का भङ्ग होना कहा है यह अयुक्त है क्योंकि नगर निवासी पुरुष नगर से बाहर जाने पर भी नागरिक ही कहा जाता है क्योंकि उसकी पर्याय वही है बदली नहीं है इसलिये उसका घात करने से नागरिक के घात का त्याग करने वाले का व्रत भङ्ग हो जाता है परन्तु वह नागरिक यदि न र का रहना सर्वथा छोड कर ग्राम में रहने लग जाय तो वह ग्रामीण कहलाने लगता है और उसकी वह नागरिक रूपी पर्याय बदल जाती है ऐसी दशा में उसके घात से जैसे नागरिक को न मारने का व्रत धारण किये हुए पुरुष का व्रत भंग नहीं होता है उसी तरह त्रस पर्याय को त्याग कर जो प्राणी स्थावर पर्याय में चला गया है उसके घात से त्रस पर्याय के घात का त्याग किये हुए पुरुष की प्रतिज्ञा का भंग नहीं हो सकता है क्योंकि स्थावर पर्याय के घात का त्याग उसने नहीं किया है ।। ७६ ॥
सवायं उदए पेढालपुत्ते भयवं गोयमं एवं वयासी-आउसंतो गोयमा ! णस्थि णं से केइ परियाए जण्णं समणोवासगस्स एगपाणाइवायविरए वि दंडे णिक्खित्ते,
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