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अध्ययन ६
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में ही पाया जाता है अन्यत्र नहीं इसलिये वह शरीर मात्र व्यापी है तथा कारण में कार्य्य द्रव्यरूप से रहता है और पर्य्याय रूप से नहीं रहता है । आत्मा नाना गतियों में जाता है इसलिये वह परिणामी है। कूटस्थ नित्य नहीं है इत्यादि आर्हत सिद्धान्त ही युक्तियुक्त और मानने के योग्य है साङ् ख्य और आत्माऽद्वैतवाद नहीं, यह आर्द्रकुमार मुनि का आशय है ।। ४८ ।
लोयं अयाणित्तिह केवलेणं, कहंति जे धम्ममजाणमाणा ।
णासंति अप्पाण परं च णट्ठा, संसार घोरंमि अणोरपारे ।। ४९ ॥ कठिन शब्दार्थ - अयाणित्ता - न जान कर, इह यहाँ, केवलेणं
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घोरंमि- घोर, अणोरपारे - आर पार रहित ।
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भावार्थ - इस लोक को केवल ज्ञान के द्वारा न जान कर जो अज्ञानी धर्म का उपदेश करते हैं वे स्वयं नष्ट जीव अपने को तथा दूसरे को भी अपार तथा भयंकर संसार में परिभ्रमण करवाते हैं ॥ ४९ ॥ विवेचन – मुनि आर्द्रकुमार कहते हैं कि जो पुरुष केवलज्ञानी नहीं है वह वस्तु के सत्य स्वरूप को नहीं जान सकता है क्योंकि वस्तु के सत्य स्वरूप का ज्ञान केवलज्ञान से ही प्राप्त होता है । अतः केवलज्ञानी तीर्थंकरों ने जो उपदेश दिया है वही जीवों के कल्याण का मार्ग है दूसरे सब अनर्थ है । अतः जिसने केवल ज्ञान को प्राप्त नहीं किया है और केवलज्ञानी के द्वारा कहे हुए पदार्थों पर श्रद्धा भी नहीं रखता है वह पुरुष धर्मोपदेश देने के योग्य नहीं है। ऐसे मनुष्य जो उपदेश देते हैं उससे जगत्
जीवों की भारी हानि होती है क्योंकि उनके विपरीत उपदेश से जीव विपरीत आचरण करके संसार सागर में सदा के लिये बद्ध हो जाते हैं। अतः ऐसे मूर्ख जीव स्वयं तो नष्ट हैं ही साथ ही अन्य जीवों का भी नाश करते हैं ।। ४९ ॥
लोयं विजातिह केवलेणं, पुण्णेण णाणेण समाहिजुत्ता ।
धम्मं समत्तं च कहंति जे उ, तारंति अप्पाणं परं च तिण्णा ॥ ५० ॥
कठिन शब्दार्थ - विजाणंति जानते हैं, समाहिजुत्ता समाधि युक्त, तारंति - तारते हैं, तिण्णा तीर्ण-तिर गये हैं।
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केवलज्ञान से, णट्ठा - नष्ट,
भावार्थ- समाधि युक्त जो पुरुष पूर्ण केवलज्ञान के द्वारा इस लोक के वास्तविक स्वरूप को जानते हैं और सच्चे धर्म का उपदेश देते हैं वे पाप से पार हुए पुरुष अपने को और दूसरे को भी संसार पार करते हैं ॥ ५० ॥
सागर
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विवेचन मुनि आर्द्रकुमार इस गाथा के द्वारा यह बतलाते हैं कि जो पुरुष केवलज्ञानी हैं वे ही वस्तु के सच्चे स्वरूप को जानते हैं अतः पुरुष ही जगत् के हित के लिये सच्चे धर्म का उपदेश देकर अपने को तथा दूसरों को भी संसार सागर से पार करते हैं। परन्तु जो पुरुष केवली नहीं है वह वस्तु के यथार्थ स्वरूप का ज्ञाता न होने के कारण मन माने तौर से आचरण करता हुआ स्वयं भी
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