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________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २ ************************************************************************************ १६६ समानभाव से भगवान् धर्म का उपदेश देते हैं इसलिये उनमें राग द्वेष का गन्ध भी नहीं है। अनार्य्य देश में भगवान् नहीं जाते हैं इसका कारण अनार्य्य देश से उनका द्वेष नहीं है किन्तु अनार्य्य पुरुष क्षेत्र भाषा और कर्म से हीन हैं तथा वे दर्शन से भी भ्रष्ट है अतः कितना ही प्रयत्न करने पर भी उनका उपकार सम्भव नहीं है अतः वहां जाना व्यर्थ जानकर भगवान् अनार्य्य देश में नहीं जाते हैं। आर्य देश में भी राग के कारण भगवान् नहीं भ्रमण करते हैं किन्तु भव्य जीवों का उपकार के लिये तथा अपने तीर्थंकर नामकर्म का क्षपण करने के लिये भ्रमण करते हैं अतः भगवान् में राग द्वेष की कल्पना करना मिथ्या है। भगवान् अन्य तीर्थियों से डरकर आगन्तुकों के स्थान पर नहीं जाते हैं यह कथन भी मिथ्या है। क्योंकि भगवान् सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हैं उनसे कुछ भी छिपा नहीं है फिर वे प्रश्नों के उत्तर से डरें यह कल्पना भी नहीं की जा सकती है। एक अन्यतीर्थी तो क्या सभी अन्यतीर्थी मिल कर भी भगवान् के सामने अपना मुख भी नहीं उठा सकते हैं अतः उनसे भगवान् को भय करने की कल्पना मिथ्या है। भगवान् जहां कुछ उपकार होना नहीं देखते हैं वहां नहीं जाते हैं, यही बात सत्यं जानो ।। १८ ॥ पणं जहा वणिए उदयट्ठी, आयस्स हेउं पगरेइ संगं । तवमे समणे णायपुत्ते, इच्चेव मे होइ मइ वियक्का ॥ १९ ॥ कठिन शब्दार्थ - उदयट्ठी - उदयार्थी लाभार्थी, वणिए वणिक, मइ मति । - भावार्थ- जैसे लाभार्थी वणिक् क्रय विक्रय के योग्य वस्तु को लेकर लाभ के निमित्त महाजनों से सङ्ग करता है यही उपमा श्रमण ज्ञातपुत्र की है यह मेरी बुद्धि या विचार है ॥ १९ ॥ विवेचन - गोशालक कहता है कि हे आर्द्रकुमार ! जैसे कोई वैश्य कपूर, अगर, कस्तुरी तथा ..अम्बर आदि बेचने योग्य वस्तुओं को लेकर लाभ के लिये दूसरे देश में जाता है और वहां अपने लाभ 'के लिये महाजनों का संग करता है इसी तरह तुम्हारे ज्ञातपुत्र महावीर स्वामी का भी व्यवहार है । वे अपने स्वार्थ साधन के लिये ही जन समूह में जाकर धर्मोपदेश देते हैं यह मेरा निश्चय है अत: तुम मेरी बात सत्य जानो ।। १९॥ कुजा विहू पुराणं, चिच्चाऽमई ताई य साह एवं । ओवा बंभवइति वत्ता, तस्सोदयट्ठी समणे त्ति बेमि ॥ २० ॥ कठिन शब्दार्थ - विहूणे - क्षपण (नष्ट) करते हैं, ताई - त्रायी - रक्षक, बंभवई - ब्रह्मव्रती - मोक्ष का व्रत वाला, स - वह, आह - कहा है। भावार्थ - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी नवीन कर्म नहीं करते हैं किन्तु वे पुराने कर्मों का क्षपण करते हैं। क्योंकि वे स्वयं यह कहते हैं कि प्राणी कुमति को छोड़ कर ही मोक्ष को प्राप्त करता है। इस प्रकार मोक्ष का व्रत कहा गया है उसी मोक्ष के व्रत की इच्छा वाले भगवान् हैं। यह मैं कहता हूँ ॥ २० ॥ Jain Education International - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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