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________________ अध्ययन ६ १६५ गंता च तत्था अदुवा अगंता, वियागरेजा समियासुपण्णे । अणारिया दंसणओ परित्ता, इइ संकमाणो ण उवेइ तत्थ॥१८॥ कठिन शब्दार्थ - समिया - समता भाव से, आसुपण्णे - आशुप्रज्ञ - जिसे तत्काल बुद्धि उत्पन्न हो जाती है वह पुरुष, परित्ता - भ्रष्ट । भावार्थ - सर्वज्ञ भगवान् महावीर स्वामी सुनने वालों के पास जाकर अथवा न जाकर समान भाव से धर्म का उपदेश करते हैं। परन्तु अनार्य लोग दर्शन से भ्रष्ट होते हैं इस आशङ्का से भगवान् उनके पास नहीं जाते हैं ॥ १८ ॥ . विवेचन - आर्द्रकमुनि के पूर्वोक्त वचनों से तिरस्कार को प्राप्त गोशालक फिर दूसरी रीति से भगवान् महावीर स्वामी पर आक्षेप करता हुआ कहता है कि - हे आर्द्रक ! तुम्हारे महावीर सच्चे साधु नहीं है किन्तु राग द्वेष और भय से युक्त होने के कारण दाम्भिक हैं । जहां बहुत से आये गये लोग उतरते हैं उस स्थान में तथा बगीचे आदि में बने हुए स्थानों में वे नहीं उतरते हैं वे समझते हैं कि-"इन स्थानों में बहुत से बड़े-बड़े धर्म के ज्ञाता विद्वान् अन्यतीर्थी उतरते हैं । वे बड़े तार्किक और शास्त्र के ज्ञाता वक्ता, जाति आदि में श्रेष्ठ एवं योगसिद्धि तथा औषधसिद्धि आदि के ज्ञाता होते हैं। वे अन्यतीर्थी बड़े मेधावी और आचार्य के पास रहकर शिक्षा पाये हुए होते हैं। वे सूत्र और अर्थ के धुरन्धर विद्वान् और बुद्धिमान होते हैं अतः वे यदि मेरे से कुछ पूछ बैठे तो मैं उनका उत्तर नहीं दे सकूगा अतः वहां जाना ही ठीक नहीं है"। यह सोच कर तुम्हारे महावीर स्वामी अन्यतीर्थियों के डर से उक्त स्थानों में नहीं उतरते हैं। इस प्रकार अन्यतीर्थियों से डरने वाले महावीर स्वामी डरपोक हैं तथा सबमें उनकी समान दृष्टि नहीं है इसलिये वे राग और द्वेष से भी युक्त हैं। यदि यह बात न होती तो वे अनार्य्य देश में जाकर अनार्यों को धर्म का उपदेश क्यों नहीं करते ? तथा आर्य्य देश में भी सर्वत्र न जाकर कतिपय स्थानों में ही क्यों जाते ? अतः वे समान दृष्टि वाले नहीं किन्तु विषम दृष्टि होने के कारण राग द्वेष से युक्त हैं अतः राग द्वेष और भययुक्त होने के कारण वे सच्चे साधु नहीं अपितु दाम्भिक हैं । - इस प्रकार गोशालक के द्वारा किये हुए आक्षेपों का समाधान करते हुए आर्द्रकमुनि कहते हैं किहे गोशालक ! भगवान् महावीर स्वामी भयशील तथा विषमदृष्टि नहीं है किन्तु भगवान् बिना प्रयोजन कोई कार्य नहीं करते हैं एवं भगवान् बिना विचारे भी कार्य करना नहीं चाहते हैं। भगवान् सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हैं वे सदा दूसरे प्राणियों के हित में तत्पर रहते हैं इसलिये जिससे दूसरे का उपकार होता दिखता है वही कार्य वे करते हैं भगवान् जब देखते हैं कि मेरे उपदेश से यहां कोई फल होने वाला नहीं तब वे वहां उपदेश नहीं देते हैं। प्रश्नकर्ता का उपकार देखकर भगवान् उसके प्रश्न का उत्तर देते हैं अन्यथा नहीं देते हैं। भगवान् स्वतंत्र हैं वे अपने तीर्थंकर नाम कर्म का क्षपण तथा आर्य पुरुषों के उपकार के लिये धर्मोपदेश देते हैं। वे उपकार होता देखकर भव्यजीवों के पास जाकर भी धर्म का उपदेश देते हैं अन्यथा वहां रहकर भी उपदेश नहीं देते हैं। चाहे चक्रवर्ती हो या दरिद्र हो सबको Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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