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________________ अध्ययन ५ नहीं हैं अतः विवेकी पुरुष को राग और द्वेष तथा क्रोध और मान एवं माया और लोभ का अस्तित्व अवश्य मानना चाहिये यह इन गाथाओं का आशय है ।। २०-२१-२२ ॥ णत्थि चाउरंते संसारे, णेवं सण्णं णिवेसए । अस्थि चाउरंते संसारे, एवं सण्णं णिवेसए ॥ २३ ॥ भावार्थ - चार गति वाला संसार नहीं है ऐसा विचार नहीं रखना चाहिये किन्तु चार गति वाला संसार है यही विचार रखना चाहिये । णत्थि देवो व देवी वा, णेवं सण्णं णिवेसए । अस्थि देवो व देवी वा, एवं सण्णं णिवेसए ॥ १४७ २४ ॥ भावार्थ - देवता और देवी नहीं हैं ऐसा विचार नहीं रखना चाहिये किन्तु देवता और देवी हैं। यही बात सत्य माननी चाहिये । Jain Education International विवेचन - यह संसार चार गति वाला है इसलिये नरक गति, तिर्य्यञ्चगति, मनुष्यगति और देवगति ये चार गतियां इसकी मानी गई हैं। परन्तु कोई कहते हैं कि इस जगत् की एक ही गति है । यह जगत् कर्मबन्धन रूप है तथा सब जीवों को एक मात्र दुःख देने वाला है इसलिये यह एक ही प्रकार का है तथा कोई कहते हैं कि इस जगत् में मनुष्य और तिर्य्यञ्च दो ही पाये जाते हैं देवता और 'नारकी नहीं पाये जाते हैं इसलिये इस संसार की दो ही गति है और इन दो गतियों में ही सुख दुःख की उत्कृष्टता पाई जाती है अतः संसार की दो ही गति माननी चाहिये चार नहीं । यदि पर्य्याय नय का आश्रय लेवें तो भी यह संसार अनेक विध है चतुर्विध नहीं है इस संसार को चतुर्विध मानना भूल है यह . किसी का मत है इस मत को निराकरण करते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि संसार चार गति वाला नहीं है ऐसा नहीं मानना चाहिये क्योंकि तिर्य्यञ्च और मनुष्य तो प्रत्यक्ष हैं और देवता तथा नारकी भी अनुमान से सिद्ध होते हैं इसलिये संसार चार गति वाला है। यही बात माननी चाहिये। वह अनुमान यह है-इस जगत् में पाप और पुण्य का मध्यम फल भोगने वाले तिर्य्यञ्च और मनुष्य प्रत्यक्ष देखे जाते हैं इससे सिद्ध होता है कि- पाप और पुण्य के उत्कृष्ट फल भोगने वाले भी कोई अवश्य हैं। जो पाप के उत्कृष्ट फल भोगने वाले हैं वे नारकी हैं और जो पुण्य के उत्कृष्ट फल भोगने वाले हैं वे देवता हैं तथा प्रत्यक्ष ही ज्योतिर्गण देखे जाते हैं और उनके विमानों की भी उपलब्धि होती है इससे स्पष्ट है कि उन विमानों का कोई अधिष्ठाता भी अवश्य है तथा ग्रह के द्वारा पीड़ित किया जाना और वरदान आदि प्राप्त करना भी देवताओं के अस्तित्व में प्रमाण है अतः देवता और नारकी को न मान कर तिर्य्यञ्च और मनुष्य रूप दो ही गति मानना अयुक्त है। एवं पर्याय नय के आश्रय से जगत् को अनेक प्रकार का मानना भी ठीक नहीं है क्योंकि - नरक की सात भूमियों में रहने वाले नारकी जीव सबके सब एक ही नरक गति वाले हैं एवं तिर्य्यञ्च और पृथिवी आदि स्थावर तथा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय प्राणी जो ६२ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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