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________________ १४६ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २ विवेचन - अपने या दूसरे पर अप्रीति करना क्रोध है । वह क्रोध अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन के भेद से चार प्रकार का है तथा मान के भी ये ही चार भेद हैं । गर्व करना मान कहलाता है। कोई कहते हैं कि-क्रोध, मान से भिन्न नहीं है किन्तु मान का ही अंश है इसीलिये अभिमानी पुरुषों में ही क्रोध का उदय देखा जाता है एवं क्षपक श्रेणी में क्रोध का अलग क्षपण करना भी नहीं माना जाता है तथा क्रोध आत्मा का धर्म नहीं है क्योंकि वह सिद्ध पुरुषों में नहीं है एवं वह कर्म का भी धर्म नहीं है क्योंकि कर्म का धर्म होने पर दूसरे कषायों के उदय के साथ इसका भी उदय होना चाहिये और घट के समान मूर्त है इसलिये कर्मस्वरूप क्रोध की भी स्वतंत्र आकार में उपलब्धि होनी चाहिये परन्तु ये सब नहीं होते हैं अतः क्रोध न तो आत्मा का धर्म है और न कर्म का ही धर्म है । आत्मा और कर्म का धर्म न होकर क्रोध यदि दूसरे किसी पदार्थ का धर्म हो तब तो उससे.. आत्मा की कोई हानि नहीं है अतः क्रोध कोई पदार्थ नहीं है यह कोई कहते हैं परन्तु इनका यह मन्तव्य ठीक नहीं है क्योंकि-कषाय कर्म के उदय होने पर मनुष्य अपने दांतों के द्वारा अपने ओठों को काटने लगता है और भृकुटि को टेढ़ी करके भयंकर मुख बना लेता है उसका मुख रक्तवर्ण हो जाता है और उसमें से पसीने के बिन्दु टपकने लगते हैं यह क्रोध का प्रत्यक्ष लक्षण देखा जाता है अतः क्रोध को न मानना प्रत्यक्ष से विरुद्ध है । वह क्रोध मान का अंश नहीं है क्योंकि वह मान का कार्य नहीं करता है एवं वह दूसरे कारण से उत्पन्न होता है। वह क्रोध जीव और कर्म दोनों का ही धर्म है किसी एक का नहीं है इसलिये एक का धर्म मान कर जो दोष बताये हैं वे ठीक नहीं है। इस प्रकार क्रोध की सत्ता स्पष्ट सिद्ध होने पर भी उसे नहीं मानना अज्ञान का फल है तथा मान भी प्रत्यक्ष उपलब्ध होता है इसलिये उसे भी न मानना भूल है किन्तु दोनों को मानना ही विवेकी पुरुषों का कर्तव्य है। अपने धन, स्त्री, पुत्र, आदि पदार्थों में जो मनुष्य की प्रीति रहती है उसे राग या प्रेम कहते हैं उसके दो अवयव हैं एक माया और दूसरा लोभ तथा अपने इष्ट वस्तु के ऊपर आघात पहुंचाने वाले पुरुष के प्रति जो चित्त में अप्रीति उत्पन्न होती है उसको द्वेष कहते हैं। इसके भी दो अवयव हैं एक क्रोध और दूसरा मान । इस प्रकार माया और लोभ इन दोनों के समुदाय को राग कहते हैं और क्रोध और मान के समुदाय को द्वेष कहते हैं । इस विषय में किसी का सिद्धान्त है कि-माया और लोभ तो अवश्य है परन्तु इनका समुदाय जो राग है वह कोई वस्तु नहीं है तथा मान और क्रोध भी अवश्य है परन्तु इनका समुदाय रूप जो द्वेष है वह कोई पदार्थ नहीं है। क्योंकि-समुदाय अवयवों से अलग कोई पदार्थ नहीं है। यदि अलग माना जाय तो घटपटादि की तरह अवयवों से अलग उसकी उपलब्धि भी होनी चाहिये परन्तु उपलब्धि होती नहीं है इसलिये समुदाय या अवयवी कोई वस्तु नहीं है अतः राग (प्रीति) और द्वेष कोई पदार्थ नहीं है यह कोई कहते हैं। वस्तुतः यह मत ठीक नहीं है क्योंकि अवयवी या समुदाय अवयवों से कथञ्चित् भिन्न और कथञ्चित् अभिन्न है, उसको नहीं मानने से घटपटादि पदार्थों में जो एकत्व का व्यवहार होता है वह किसी तरह भी नहीं हो सकता हैं क्योंकि अवयव अनेक हैं एक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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