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________________ १४४ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २ संवर भी कोई पदार्थ सिद्ध नहीं हो सकता है इस प्रकार आस्रव और संवर दोनों ही नहीं है, यह किसी का सिद्धान्त है। इस बात को मिथ्या सिद्ध करते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि आस्रव और संवर दोनों ही है यही बुद्धिमान् को मानना चाहिये परन्तु ये नहीं है यह नहीं मानना चाहिये। क्योंकि-संसारी आत्मा के साथ आस्रव का न तो सर्वथा भेद ही है और न सर्वथा अभेद ही है किन्तु कथञ्चित् भेद और कथञ्चित् अभेद है इसलिये एक पक्ष को लेकर जो आस्रव का खण्डन किया गया है वह मिथ्या है। काय, वाणी और मन का जो शुभ योग है वह पुण्यास्रव तथा उनका अशुभयोग पापास्रव है तथा काय वाणी और मनकी गुप्ति संवर है। जब तक इस जीव का शरीर में अहंभाव है तब तक कायिक वाचिक और मानसिक योगों के साथ उसका सम्बन्ध अवश्य है इसलिये आस्त्रव और संवर को न मानना अज्ञान है ।। १६-१७॥ णस्थि वेयणा णिज्जरा वा, णेवं सणं णिवेसए । . अस्थि वेयणा णिज्जरा वा, एवं सण्णं णिवेसए ॥ १८॥ भावार्थ - वेदना और निर्जरा नहीं है ऐसा विचार नहीं रखना चाहिए किन्तु वेदना और निर्जरा हैं . " . यही निश्चय रखना चाहिये ।। णत्थि किरिया अकिरिया वा, णेवं सण्णं णिवेसए । अस्थि किरिया अकिरिया वा, एवं सण्णं णिवेसए ॥१९॥ भावार्थ - क्रिया और अक्रिया नहीं हैं यह नहीं मानना चाहिये किन्तु क्रिया और अक्रिया हैं यह मानना चाहिये। विवेचन - कर्म के फल को भोगना वेदना है और आत्मप्रदेशों से कर्मपुद्गलों का झड़ना निर्जरा है । ये दोनों ही पदार्थ नहीं है ऐसी मान्यता कई लोगों की है । वे कहते हैं किं-सैकड़ों पल्योपम और सागरोपम समय में भोगने योग्य कर्मों का भी अन्तर्मुहूर्त में ही क्षय हो जाता है क्योंकि-अज्ञानी जीव अनेक कोटि वर्षों में जिन कर्मों का क्षपण करता है उन्हें तीन गुप्तियों से युक्त ज्ञानी पुरुष एक उच्चास मात्र में नष्ट कर देता है यह शास्त्र सम्मत सिद्धान्त है तथा क्षपक श्रेणी में प्रविष्ट साधु शीघ्र ही अपने कर्मों का क्षय कर डालता है अतः क्रमशः बद्ध कर्मों का अनुभव न होने के कारण वेदना का अभाव 'सिद्ध होता है और वेदना के अभाव होने से निर्जरा का अभाव स्वतः सिद्ध है। परन्तु विवेकी पुरुष को ऐसा नहीं मानना चाहिये क्योंकि-तपस्या और प्रदेशानुभव के द्वारा कतिपय कर्मों का ही क्षपण होता है शेष कर्मों का नहीं टनको तो उदीरणा और उदय के द्वारा अनुभव करना ही पड़ता है अतः वेदना का सद्भाव अवश्य है अभाव नहीं है अतएव आगम कहता है कि"पुब्बिं दुचिण्णाणं दुप्पडिकताणं कम्माणं वेइत्ता मोक्खो, णत्थि अवेइत्ता ।" अर्थात् पहले अपने किये हुए पाप कर्मों का फल भोग कर ही मोक्ष होता है अन्यथा नहीं होता। इस प्रकार वेदना की सिद्धि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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