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________________ अध्ययन ५ १४३ विवेचन - किसी अन्यतीर्थी का सिद्धान्त है कि इस जगत् में पुण्य नाम का कोई पदार्थ नहीं है किन्तु एक मात्र पाप ही है । वह पाप जब अल्प होता है तब सुख उत्पन्न करता है और जब अधिक हो जाता है तब दुःख उत्पन्न करता है । दूसरे लोग इसे न मान कर कहते हैं कि-जगत् में पाप नाम का कोई पदार्थ नहीं है एक मात्र पुण्य ही है। वह पुण्य जब घट जाता है तब दुःख को उत्पन्न करता है और वह बढ़ता हुआ सुख की उत्पत्ति करता है । एवं तीसरे लोग यह कहते हैं कि-पाप या पुण्य दोनों ही पदार्थ मिथ्या है क्योंकि जगत् की विचित्रता नियति और स्वभाव आदि के कारण से होती है। अतः पाप और पुण्य के द्वारा जगत् की विचित्रता मानना मिथ्या है। इन ऊपर कहे हुए समस्त मतों को मिथ्या सिद्ध करते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि-"पाप और पुण्य नहीं है ऐसा नहीं मानना चाहिये किन्तु ये दोनों ही हैं यही मानना चाहिये।" जो पाप को मान कर पुण्य का खण्डन करते हैं और जो पुण्य को मानकर पाप का निषेध करते हैं वे दोनों ही वस्तुतत्त्व को नहीं जानते हैं क्योंकि पाप मानने पर पुण्य अपने आप सिद्ध हो जाता है, क्योंकि ये दोनों ही परस्पर नियत सम्बन्ध रखने वाले पदार्थ है अतः पाप के होने पर पुण्य और पुण्य के होने पर पाप अपने आप सिद्ध हो जाता है अतः दोनों को ही मानना चाहिये । जो लोग जगत् की विचित्रता नियति या स्वभाव से मान कर पाप और पुण्य दोनों का खण्डन करते हैं वे भूल करते हैं क्योंकि स्वभाव या नियति से जगत् की विचित्रता मानने पर तो जगत् की समस्त क्रियायें निरर्थक ठहरेंगी, सब कुछ नियति और स्वभाव से ही हो तो फिर क्रिया करने की कोई आवश्यकता नहीं रहती है अतः पुण्य और पाप को न मानना भूल है। यहाँ प्रसङ्गवश संक्षेप से पुण्य और पाप का स्वरूप बतला दिया जाता है। पुद्गलकर्म शुभं यत्, तत् पुण्यमिति जिनशासने दृष्टम्। यदशुभमथ तत् पापमिति, भवति सर्वज्ञनिर्दिष्टम् ॥ इस जिन शासन में सर्वज्ञ के वचनों के अनुसार शुभ जो कर्मपुद्गल हैं उन्हें पुण्य और अशुभ कर्म पुद्गल को पाप कहते हैं । यही १६वीं गाथा का आशय है । जिसके द्वारा आत्मा में कर्म प्रवेश करता है उसे 'आस्रव' कहते हैं वह प्राणातिपात आदि है और उस आस्रव को रोकना संवर कहलाता है। ये दोनों ही पदार्थ अवश्य हैं यही मानना चाहिये परन्तु ये नहीं हैं यह नहीं मानना चाहिये। कोई कहते हैं कि-जिसके द्वारा आत्मा में कर्म प्रवेश करते हैं वह आस्रव आत्मा से भिन्न है अथवा अभिन्न है ? यदि भिन्न है तो वह आस्रव नहीं कहा जा सकता है क्योंकि जैसे आत्मा से भिन्न घट(घड़ा) पट (कपड़ा) आदि पदार्थ हैं उसी तरह वह आस्रव भी है फिर उसके द्वारा आत्मा में कर्म किस तरह प्रवेश कर सकता है क्योंकि घट पटादि पदार्थों के द्वारा आत्मा में कर्म का प्रवेश तुम भी नहीं मान सकते। यदि आत्मा से आस्रव को अभिन्न कहो तब तो मुक्तात्माओं में भी आस्रव मानना पड़ेगा अतः आस्रव कोई वस्तु नहीं है और आस्रव कोई वस्तु नहीं है इसलिये उस आस्रव का निरोध रूप Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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