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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २
चौथा पुरुष उत्तर दिशा की ओर से पुष्करिणी पर आकर, किनारे पर खड़ा रहकर, उस श्रेष्ठ कमल को और उसे लेने जाकर कीचड़ में फंसे हुए तीन पुरुषों को देखता है ॥ ५ ॥ (शेष सूत्र का अर्थ तीसरे सूत्र के समान है)
अह भिक्खू लूहे- तीरट्ठी जाव गइ-परक्कमण्णू, अण्णयराओ दिसाओ वा अणुदिसाओ वा आगम्म तं पुक्खरिणिं, तीसे पुक्खरिणीए तीरे ठिच्चा पासइ, तं महं एगं पउम - वर - पोंडरीयं जाव पडिरूवं, ते तत्थ चत्तारि पुरिसजाए पासड़, पहीणे तीरं, अपत्ते जाव पउम - वर- पोंडरीयं, णो हव्वाए णो पाराए, अंतरा पुक्खरिणीए सेयंसि णिसण्णे । तए णं से भिक्खू एवं वयासी -
'अहो णं इमे पुरिसा अखेयण्णा जाव णो मग्गस्स गइ-परक्कमण्णू, जं एए पुरिसा एवं मण्णे - अम्हे एवं पउमवर पोंडरीयं उण्णिक्खिस्सामो, णो य खलु एवं पउमवर-पोंडरीयं एवं उण्णिक्खेयव्वं, जहा णं एए पुरिसा मण्णे । अहमंसि भिक्खू लूहे तीरट्ठी- खेयपणे जाव मग्गस्स गइ - परक्कमण्णू; अहमेयं पउमवर पोंडरीयं उण्णिक्खिस्सामि त्ति कट्टु' -
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इति वच्चा से भिक्खू णो अभिक्कमे तं पुक्खरिणिं तीसे पुक्खरिणीए तीरे ठिच्चा सद्दं कुज्जा- 'उप्पयाहि ! खलु भो पउमवर - पोंडरीया ! उप्पयाहि' ।
अह से उप्पइए पउम - वर - पोंडरीए ॥ ६ ॥
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कठिन शब्दार्थ - लूहे रूक्ष-राग द्वेष रहित, तीरट्ठी- तीरार्थी संसार सागर के तट पर जाने की इच्छा करने वाला, अणुदिसाओ - विदिशा से, उप्पयाहि- बाहर निकलो (ऊपर आओ ) ।
भावार्थ- पहले उन चार पुरुषों का वर्णन किया गया है जो श्वेत कमल को पुष्करिणी से • बाहर निकालने के लिये आये तो थे परन्तु वे आप ही अज्ञानवश उस पुष्करिणी के कीचड़ में फंस गये फिर वे कमल को बाहर निकाल सकें इसकी तो आशा ही क्या है ? अब पाँचवें पुरुष का, वर्णन किया जाता है यह पुरुष भिक्षा मात्र जीवी साधु है तथा राग द्वेष से रहित रूक्ष घड़े के समान कर्म मल के लेप से रहित है, यह संसार सागर से पार जाने की इच्छा करने वाला खेदज्ञ है । यह पुरुष भी पूर्व पुरुषों के समान ही किसी दिशा से उस पुष्करिणी के तट पर आया और उसके तट पर खड़ा होकर उस उत्तम श्वेत कमल को तथा उस पुष्करिणी के अगाध कीचड़ में फंस कर कष्ट पाते हुए उन चार पुरुषों को भी उसने देखा । उसने उन पुरुषों का अज्ञान प्रकट करते हुए कहा कि ये लोग कार्य शैली को नहीं जानते हैं पुष्करिणी के अगाध जल और अगाध कीचड़ में स्वयं फंस कर भला इस श्वेत कमल को कोई किस तरह निकाल सकता है ? मैं कार्य
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