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________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २ सत्ता है इसीलिये मोर के अण्डे से मोर ही उत्पन्न होता है परन्तु काक आदि नहीं होते हैं तथा शालि के अंकुर की इच्छा करने वाला पुरुष शालि (चावल) के ही बीज को ग्रहण करता है यव (जव) आदि के बीज को नहीं तथा कारण में कार्य्य के गुण, क्रिया और नाम नहीं पाये जाते हैं इसलिये वह कारण में कथञ्चित् नहीं भी रहता है। यदि वह सर्वथा वर्तमान होता तो फिर उसे उत्पन्न करने के लिये कर्त्ता आदि कारण कलापों की प्रवृत्ति कैसे होती ? अतः कारण में कार्य्य का कथञ्चित् सद्भाव और कथञ्चित् असद्भाव मानना ही विवेकी पुरुष का कर्त्तव्य जानना चाहिये ।। १०-११ ॥ णत्थि लोए अलोए वा, णेवं सण्णं णिवेसए । अथ लोए अलोए वा, एवं सण्णं णिवेसए ।। १२॥ - कठिन शब्दार्थ- सण्णं संज्ञा (ज्ञान) णिवेसए रखे । भावार्थ - लोक या अलोक नहीं है ऐसा ज्ञान नहीं रखना चाहिये किन्तु लोक और अलोक हैं। यही ज्ञान रखना चाहिये । १.३८ - णत्थि जीवा अजीवा वा, णेवं सण्णं णिवेसए । अस्थि जीवा अजीवा वा, एवं सण्णं णिवेसए ॥ १३ ॥ भावार्थ - जीव और अजीव पदार्थ नहीं हैं ऐसा ज्ञान नहीं रखना चाहिये । किन्तु जीव और अजीव हैं यही ज्ञान रखना चाहिये । विवेचन - सर्वशून्यतावादी लोक अलोक और जीव तथा अजीव आदि पदार्थों को मिथ्या मानते हैं वे कहते हैं कि- स्वप्न, इन्द्रजाल और माया में प्रतीत होने वाले पदार्थ जैसे मिथ्या हैं इसी तरह अस्वप्नावस्था में प्रतीत होने वाले भी जगत् के सभी दृश्य मिथ्या हैं। इसकी सिद्धि इस प्रकार जाननी चाहिये - जगत् में जितने भी दृश्य पदार्थ प्रकाशित हो रहे हैं वे सभी अपने-अपने अवयवों के द्वारा ही प्रकाशित हो रहे हैं इसलिये उनके अवयवों की सत्ता जब तक सिद्ध न की जाय तब तक उनकी सत्ता सिद्ध होना सम्भव नहीं है परन्तु अवयवों की सत्ता सिद्ध होना शक्य नहीं है क्योंकि अन्तिम अवयव परमाणु है अर्थात् अवयवों की धारा परमाणु में जाकर समाप्त होती है और वह परमाणु इन्द्रियातीत यानी इन्द्रियों से ग्रहण करने योग्य नहीं है इसलिये उसकी सत्ता सिद्ध होना संभव नहीं और उसकी सत्ता सिद्ध न होने से दृश्य पदार्थ की सत्ता भी सिद्ध नहीं हो सकती है । यदि जगत् के दृश्य पदार्थों को अपने अपने अवयवों के द्वारा प्रकाशित न मानकर अवयवी के द्वारा प्रकाशित माना जावे तो भी उनकी सिद्धि नहीं होती क्योंकि वह अवयवी अपने प्रत्येक अवयवों में सम्पूर्ण रूप से स्थित माना जायगा अथवा देश से ? यदि वह प्रत्येक अवयवों में सम्पूर्णतः स्थित माना जाय तो जितने अवयव हैं उतने ही अवयवी भी मानने पडेंगे जो किसी को भी इष्ट नहीं है क्योंकि सभी एक ही अवयवी मानते हैं अतः प्रत्येक अवयवों में अवयवी की पूर्णरूप से स्थिति नहीं मानी जा सकती है । यदि वह अवयवी अपने प्रत्येक अवयवों में अंशतः रहता है यह माना जावे तो भी नहीं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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