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________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २ 'अहो णं इमे पुरिसे अखेयण्णे-अकुसले अपंडिए-अवियत्ते-अमेहावी-बालेणो मग्गत्ये णो मग्गविऊ, णो मग्गस्स गइ परक्कमण्णू, जण्णं एस पुरिसे-अहं खेयण्णे-कुसले जाव पउम-वर-पोंडरीयं उण्णिक्खिस्सामि-णो य खलु एवं पउमवर-पोंडरीयं एवं उण्णिक्खेयव्वं-जहा णं एस पुरिसे मण्णे । अहमंसि पुरिसे खेयण्णे कुसले पंडिए वियत्ते मेहावी अबाले मग्गत्थे मग्गविऊ मग्गस्स गइ-परक्कमण्णू; अहमेयं पउम-वर-पोंडरीयं उण्णिक्खिस्सामि त्ति कट्ट' इति वच्चा (बूया) से पुरिसे अभिक्कमे तं पुक्खरिणीं । जावं जावं च णं अभिक्कमेइ ता तावं च णं महंते उदए, महंते सेए, पहीणे तीरं, अपत्ते परमवर-पोंडरीयं, णो हव्याए णो पाराए; अंतरा पोक्खरिणीए सेयंसि णिसण्णे । दोच्चे,पुरिस-जाए ॥३॥ कठिन शब्दार्थ - दक्खिणाओ - दक्षिण दिशा से, मण्णे - माना, उण्णिक्खेयव्वं - निकाला (उखाड़ा) जा सकता। भावार्थ - अब दूसरे पुरुष के विषय में कहते हैं । दूसरा पुरुष दक्षिण दिशा की ओर से पुष्करिणी पर आकर, किनारे पर खड़े रहकर, उस कमल और कीचड़ में फंसे हुए पहले पुरुष को देखता है । तब वह पहले पुरुष के विषय में बोला -' 'अहो ! यह व्यक्ति अक्षेत्रज्ञ, अकुशल, अपण्डित, अविवेकी, अबुद्धिमान, बाल, मार्ग में अस्थित, मार्ग से अपरिचित और मार्ग की उलझनों से अनभिज्ञ है; - परन्तु इस पुरुष ने समझा कि मैं ज्ञानी और कुशल हूँ, इसलिये इस श्रेष्ठ कमल को निकाल लाऊंगा।' पर यह कमल इस प्रकार नहीं उखाड़ा जा सकता, जिस प्रकार कि यह पुरुष मानता है। मैं क्षेत्रज्ञ, कुशल, पण्डित, विवेकी, मेधावी, प्रौड़, मार्ग में स्थित, मार्ग का ज्ञाता और गति के कौशल को जानने वाला हूँ। इसलिये मैं वहां जाकर, कमल को उखाड़ कर ला सकता हूँ।' उसने यह कह कर, पुष्करिणी में प्रवेश किया। ज्यों-ज्यों वह आगे बढ़ता जाता है त्यों-त्यों पानी और कीचड़ की गहराई-अधिकता बढ़ती जाती है। वह किनारे से दूर चला जाता है, पर कमल तक नहीं पहुंच पाता और न इस ओर आ सकता है, न उस ओर जा सकता है। वह दूसरा पुरुष भी कीचड़ में फंस जाता है। ____ अहावरे तच्चे पुरिस:जाए । अह पुरिसे पच्चत्थिमाओ दिसाओ आगम्म तं पुक्खरिणिं, तीसे पुक्खरिणीए तीरे ठिच्या पासइ, तं एगं महं पउम-वर-पोंडरीयं अणुपुष्युट्ठियं जाव पडिलवं; ते तत्य दोण्णि पुरिस जाए पासइ, पहीणे तीरं, अपत्ते Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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