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________________ अह पुरिसे पुरित्थिमाओ दिसाओ आगम्म तं पुक्खरिणिं, तीसे पुक्खरिणीए तीरे ठिच्चा पासइ, तं महं एगं पउम - वर- पोंडरीयं अणुपुव्वुट्ठियं ऊसियं जाव पडिरूवं । तए णं से पुरिसे एवं वयासी - 'अहमंसि पुरिसे खेयण्णे - कुसले - पंडिए - वियत्ते-मेहावी- अबाले - मग्गत्थे - मग्गविऊ- मग्गस्स गइ परक्कमण्णू, अहमेयं पउम - वर पोंडरीयं उण्णिक्खिस्सामि त्ति कट्टु' - - इइ बुया से पुरिसे अभिक्कमेइ तं पुक्खरिणीं, जावं जावं च णं अभिक्कमेइ तावं तावं च णं महंते उदए, महंते सेए, पहीणे तीरं अपत्ते पउमवर - पोंडरीयं, णो हव्वा णो पाराए, अंतरा पोक्खरिणीए - सेयंसि णिसण्णे । पढमे पुरिसजाए ॥ २ ॥ कठिन शब्दार्थ - आगम्म आकर, पुरित्थिमाओ - पूर्व, दिसाओ- दिशा से, तीरे - तीर पर, ठिच्चा - खड़ा हो कर, वियत्ते व्यक्त - बालभाव से निवृत्त, मग्गत्थे मार्गस्थ मार्ग में स्थित, मग्गविऊ – मार्ग का जानकार, गइपरक्कमण्णू - गति पराक्रमज्ञ - अभीष्ट को प्राप्त कराने वाले मार्ग का ज्ञाता, उण्णिक्खिस्सामि - उखाडूंगा, अभिक्कमे प्रवेश करता है, पहीणे - छूट गया, अपत्ते - . अप्राप्त नहीं मिला, हव्वाएं इस पार, पाराए उस पार सेयंसि कीचड़ में, णिसण्णे फंस गया। भावार्थ - जिस पुष्करिणी का वर्णन प्रथम सूत्र में किया गया है उसके तट पर एक पुरुष पूर्व दिशा से आता है और वह पुष्करिणी के तट पर खड़ा होकर उस उत्तम श्वेतकमल को देख कर कहता है कि- "मैं बड़ा ही बुद्धिमान्, भले और बुरे कर्त्तव्य का ज्ञाता, युवा और अभीष्ट सिद्धि के मार्ग को जानने वाला हूँ। मैं इस पुष्करिणी के मध्य में सुशोभित इस उत्तम श्वेत कमल को बाहर निकालने के लिये आया हूँ" यह कह कर वह पुरुष उस श्वेत कमल को निकालने के लिये उस पुष्करिणी में प्रवेश करता है परन्तु वह ज्यों-ज्यों आगे जाता है त्यों-त्यों उसको अधिक जल और अधिक कीचड़ मिलते हैं। वह बिचारा पुष्करिणी के तीर से भी भ्रष्ट हो जाता है और श्वेत कमल को भी नहीं प्राप्त कर सकता है, वह न इस पार का होता है और न उस पार का होता है किन्तु पुष्करिणी के बीच में कीचड़ तथा जल में फंस कर महान् कष्ट पाता है । यह पहले पुरुष का वृत्तान्त है ॥ २ ॥ अहावरे दोच्चे पुरिस जाए; अह पुरिसे दक्खिणाओ दिसाओ आगम्म तं पुक्खरिणं, तीसे पुक्खरिणीए तीरे ठिच्चा पासइ, तं महं एगं पउमवर - पोंडरीयं अणुपुव्वुट्ठियं पासाइयं जाव पडिरूवं । तं च एत्थ एगं पुरिसजायं पास पहीणतीरं, अपत्तपउम - वरपोंडरीयं, णो हव्वाए णो पाराए, अंतरा पोक्खरिणीए सेयंसि णिसण्णं । तए णं से पुरिसे तं पुरिसं एवं वयासी 1 Jain Education International अध्ययन १ - - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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