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________________ ११६ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २ २. अप्योनिक अप्काय - जो पूर्वकृत कर्म के अनुसार एक अप्काय में ही दूसरे अप्काय के रूप में उत्पन्न होते हैं वे अप्काय योनिक अप्काय कहलाते हैं जैसे शुद्ध पानी बर्फ के रूप में उत्पन्न होता है। शेष सब प्रक्रिया पूर्ववत् है। ३. सस्थावर योनिक अप्काय - यह अप्काय त्रस और स्थावर जीवों के शरीर में उत्पन्न होते हैं। शेष पूर्ववत्। ४. उदकयोनिक उदकों में उत्पन्न त्रस काय - उदकयोनिक उदक पानी बर्फ आदि में कीड़े आदि के रूप में कई जीव उत्पन्न हो जाते हैं वे उसी प्रकार के होते हैं। शेष पूर्ववत्। ... अग्निकाय और वायुकाय के उत्पत्ति के भी चार चार आलापक हैं। यथा - १. वसं स्थावर योनिक अग्निकाय। २. वायुयोनिक अग्निकाय अग्नियोनिक अग्नि काय ४. अग्नियोनिक अग्नि में उत्पन्न त्रसकाय। ____इसी प्रकार से १. त्रस स्थावर वायु योनिक वायु काय २. वायुयोनिक वायुकाय, ३. अग्नियोनिक वायुकाय ४. वायुयोनिक वायुकाय में उत्पन्न त्रस काय। ___ त्रस और स्थावरों के सचित्त और अचित्त शरीर में अग्निकाय की उत्पत्ति होती है। हाथी, मेंढा, भैंसा आदि परस्पर जब लड़ते हैं तब उनके सींगों में से आग निकलती हुई दिखाई देती है तथा अचित्त हड्डियों के परस्पर रगड से, सचित्त, अचित्त वनस्पति काय एवं पत्थर आदि में से अग्नि की लपटें निकलती हुई दिखाई देती हैं। पृथ्वीकाय की उत्पत्ति के चार आलापक - पृथ्वीकाय के यहां मिट्टी से लेकर सूर्यकान्त रत्न पर्यन्त अनेक प्रकार बताये हैं। पृथ्वीकाय की उत्पत्ति के सम्बन्ध में चार आलापक हैं - १. त्रस स्थावर प्राणियों के शरीर में उत्पन्न पृथ्वीकाय २. पृथ्वीकाय योनिक पृथ्वीकाय ३. वनस्पतियोनिक पृथ्वीकाय ४. पृथ्वीकाय योनिक पृथ्वीकाय में उत्पन्न त्रस। शेष पूर्ववत्।। ___ अहावरं पुरक्खायं सव्वे पाणा, सव्वे भूया, सव्वे जीवा, सव्वे सत्ता णाणाविहजोणिया णाणाविहसंभवा णाणाविहवुकमा सरीरजोणिया सरीरसंभवा सरीरवुकमा सरीराहारा कम्मोवगा कम्मणियाणा कम्मगइया कम्मठिइया कम्मुणा चेव विष्परियासमुर्वेति ॥ से एवमायाणह से एवमायाणित्ता आहारगुत्ते सहिए समिए सया जए त्तिबेमि ॥६२॥ बियसुयक्खंधस्स आहारपरिण्णा णाम तईय-मझयणं समत्तं ॥ भावार्थ - शास्त्रकार इस अध्ययन का उपसंहार करते हुए सामान्य रूप से समस्त प्राणियों की अवस्था को बता कर साधु को संयम पालन में सदा प्रयत्नशील बने रहने का उपदेश करते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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