________________
११४
श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २
*
.
कर्म से प्रेरित होकर उदकयोनिक उदक में आते हैं और वे उदक योनिक उदक में त्रस प्राणी के रूप में उत्पन्न होते हैं। वे जीव उन उदगयोनि वाले उदकों के स्नेह का आहार करते हैं। वे जीव पृथिवीकाय आदि शरीरों का भी आहार करते हैं। उन उदकयोनिक त्रस जीवों के दूसरे भी नानावर्ण वाले शरीर कहे गये हैं ॥५९ ॥
अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ता णाणा-विहजोणिया जाव कम्मणियाणेणं तत्थवुकमा णाणा-विहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरेसु सचित्तेसु वा अचित्तेसु वा अगणिकायत्ताए विउटुंति, ते जीवा तेसिं णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरेऽवि य णं तेसिं तसथावरजोणियाणं अगणीणं सरीरा णाणावण्णा जावमक्खायं, सेसा तिण्णि आलावगा जहा उदगाणं। अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ता णाणाविहजोणियाणं जाव कम्मणियाणेणं तत्यवुकमा णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरेसु सवित्तेसु वा अचित्तेसु वा वाउकायत्ताए विउटुंति, जहा अगणीणं तहा भाणियव्वा, चत्तारि गमा ॥६॥
भावार्थ - कोई प्राणी ऐसे होते हैं जो पूर्व कृत कर्म के प्रभाव से नाना प्रकार के त्रस और स्थावर प्राणियों के सचित्त तथा अचित्त शरीरों में अग्निकाय के रूप में उत्पन्न होते हैं । त्रस और स्थावर प्राणियों के सचित्त और अचित्त शरीरों में जो अग्नि होती है उसमें प्रत्यक्ष प्रमाण है क्योंकि - पञ्चेन्द्रिय प्राणी हाथी और भैंस आदि जब परस्पर युद्ध करते हैं तब उनके विषाणों के संघर्ष से अग्नि की उत्पत्ति देखी जाती है तथा अचित्त हड्डियों के संघर्ष से भी अग्नि की उत्पत्ति होती है इसी तरह द्वीन्द्रिय आदि शरीरों में भी अग्नि का सद्भाव समझना चाहिये। सचित्त तथा अचित्त वनस्पतिकाय एवं पत्थर आदि से भी अग्नि की उत्पत्ति देखी जाती है। वे अग्निकाय के जीव उन शरीरों में उत्पन्न होकर उनके स्नेह का आहार करते हैं। शेष तीन आलाप पूर्ववत् जानना चाहिये । अब वायुकाय के विषय में बताया जाता है। कितनेक जीव अपने पूर्वकृत कर्मों के प्रभाव से नानाविध योनिवाले त्रस और स्थावर प्राणियों के सचित्त तथा अचित्त शरीरों में वायु के रूप में उत्पन्न होते हैं शेष पूर्ववत् जानना चाहिये ।। ६०॥
अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ता णाणा-विहजोणिया जाव कम्मणियाणेणं तत्थवुलमा णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरेसु सचित्तेसु वा अचित्तेसु वा पुढवित्ताए सकरताए वालुयत्ताए इमाओ गाहाओ अणुगंतव्चाओ
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org