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________________ ११२ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २ गर्मी के कारण जमीन से कुंथुआ आदि तथा मक्खी मच्छर आदि प्राणियों की उत्पत्ति होती है। इसी प्रकार जल से भी अनेक विकलेन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति होती है। वनस्पतिकाय से भ्रमर आदि विकलेन्द्रिय जीव उत्पन्न होते हैं। पञ्चेन्द्रिय प्राणियों के मलमूत्र, मवाद आदि में भी विकलेन्द्रिय जीव: उत्पन्न होते हैं। सचित्त अचित्त वनस्पतियों में भी घुण, कीट आदि उत्पन्न हो जाते हैं। ये जीव जहाँ जहाँ उत्पन्न होते हैं वहां वहाँ के पार्श्ववर्ती या आश्रयदायी सचित्त या अचित्त प्राणियों के शरीरों से उत्पन्न मल मूत्र पसीना मवाद आदि का ही आहार करते हैं। अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ता णाणा-विहजोणिया जाव कम्मणियाणेणं तत्थवुकमा णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरेसु सचित्तेसु वा अचित्तेस वा तं सरीरगं वायसंसिद्धं वा वायसंगहियं वा वायपरिग्गहियं उडवाएसु उडभागी भवइ अहेवाएस अहेभागी भवइ तिरियवाएसु तिरियभागी भवइ, तंजहा-ओसा हिमए महिया करए हरतणुए सुद्धोदए, ते जीवा तेसिं णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सिणेहमाहारेंति ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरेऽवि य णं तेसिं तसथावरजोणियाणं ओसाणं जाव सुद्धोदगाणं सरीराणाणावण्णा जावमक्खायं ॥ कठिन शब्दार्थ - वायसंसिद्धं - वायु से बना हुआ, वायसंगहियं - वायु के द्वारा संग्रह किया । हुआ, वायपरिग्गहियं - वायु के द्वारा धारण किया हुआ, उडवाएस- ऊर्ध्व वायु होने पर, उड्डभागी - ऊर्ध्वजाने वाला, ओसा - ओस, महिया - महिका, हरतणुए - हरतनु, सुद्धोदए - शुद्ध जल । भावार्थ - इस जगत् में अपने पूर्वकृत कर्म के अधीन होकर कई प्राणी वायुयोनिक अप्काय में उत्पन्न होते हैं। वे मेढ़क आदि त्रस तथा लवण और हरित आदि स्थावर प्राणियों के सचित्त और अचित्त . नानाविध शरीरों में वायुयोनिक अप्काय के रूप में जन्म धारण करते हैं। वह अप्काय वायुजनित है इसलिये उसका उपादान कारण वायु ही है तथा उसको संग्रह और धारण करने वाला भी वायु ही है। मेघमण्डल के अन्तर्गत जो जल होता है उसे परस्पर मिलाकर चारों ओर से वायु ही धारण किये रहता है । वायु जब ऊपर का होता है तब वह अप्काय ऊपर जाता है और नीचे के वायु होने पर नीचे तथा तिरछा वायु होने पर तिरछा जाता है । आशय यह है कि-अप्काय वायुयोनिक है इसलिए वायु जैसा होता है अप्काय भी वैसा ही होता है। उसके कुछ भेद नीचे लिखे अनुसार हैं-सरदी के दिनों में जो तुषार गिरता है उसे 'अवश्याय' कहते हैं वह जल का ही भेद है तथा हिम और सरदी के समय जो हिमबिन्दु गिरता है वह जल का ही भेद है कभी कभी सरदी के दिनों में धूम्र के समान सूक्ष्म जलबिन्दु इतने गिरते हैं कि-वे पृथिवी को अन्धकार से परिपूर्ण कर देते हैं उन्हें मिहिका कहते हैं यह जल का ही भेद है एवं पत्थर के समान जमा हुआ जो पानी आकाश से गिरता है उसे करका कहते हैं यह भी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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