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________________ अध्ययन ३ १११ विउद्भृति, ते जीवा तेसिं णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरेऽवि यणं तेसिं तसथावरजोणियाणं अणुसूयगाणं सरीराणाणावण्णा जावमक्खायं ।। एवं दुरूवसंभवत्ताए। एवं खुरदुगत्ताए॥५८॥ कठिन शब्दार्थ- अणुसूयत्ताए - अनुस्यूतता-आश्रित होकर। भावार्थ - पंचेन्द्रिय प्राणियों को बताकर अब विकलेन्द्रियों का वर्णन किया जाता है । जो प्राणी त्रस और स्थावर प्राणियों के सचित्त तथा अचित्त शरीर में उत्पन्न होते हैं और उन शरीरों के आश्रय से ही स्थिति एवं वृद्धि को प्राप्त करते हैं उनका वर्णन इस पाठ में किया गया है । मनुष्य के शरीर में जूं (यूका) और लिक्ष (लीख) आदि तथा खाट में खटमल आदि उत्पन्न होते हैं एवं मनुष्य के अचित्त शरीर में तथा विकलेन्द्रिय प्राणियों के शरीर में कृमि आदि उत्पन्न होते हैं । ये प्राणी दूसरे प्राणियों के समान अन्यत्र जाने आने में स्वतन्त्र नहीं हैं किन्तु वे जिस शरीर में उत्पन्न होते हैं उसी के आश्रय से रहते हैं । सचित्त तेजः काय और वायु से भी विकलेन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति होती है । वर्षा ऋतु में गर्मी । के कारण पृथिवी से कुन्थू आदि संस्वेदज प्राणियों की उत्पत्ति होती है इसी तरह जल से भी अनेकों विकलेन्द्रिय प्राणी उत्पन्न होते हैं। वनस्पतिकाय से पनक और भ्रमर आदि विकलेन्द्रिय जीव उत्पन्न होते हैं। ये प्राणी जिस शरीर से उत्पन्न होते हैं उसी का आहार करके जीते हैं। जैसे सचित्त और अचित्त शरीर से विकलेन्द्रियों की उत्पत्ति होती है उसी तरह पंचेन्द्रिय प्राणियों के मूत्र और मल से भी दूसरे विकलेन्द्रियों की उत्पत्ति होती है। वे प्राणी शरीर से बाहर निकले हुए और नहीं निकले हुए दोनों ही प्रकार के मल मूत्रों से उत्पन्न होते हैं। इन प्राणियों की आकृति कुत्सित होती है और ये अपने उत्पत्ति स्थान मूत्र और पुरीष का ही आहार करते हैं। जैसे पंचेन्द्रिय प्राणियों के मूत्र और पुरीष से विकलेन्द्रिय प्राणी उत्पन्न होते हैं उसी तरह वे तिर्यञ्च प्राणियों के शरीर में चर्म कीट रूप से उत्पन्न होते हैं। जीवित गाय और भैंस के शरीर में बहुत से चर्मकीट उत्पन्न होते हैं और वे गाय तथा भैंस के चमड़े को खाकर वहां गड्ढा कर देते हैं उस गड्ढे में से जब रक्त निकलने लगता है तब वे उस गड्ढे में स्थिर होकर उसके रक्त का आहार करते हैं। गाय और भैंस के अचित्त शरीर में भी विकलेन्द्रिय प्राणी उत्पन्न होते हैं। सचित्त और अचित्त दोनों प्रकार की वनस्पतियों में घुण और कीट आदि विकलेन्द्रिय प्राणी उत्पन्न होते हैं और वे अपने आश्रित उस वनस्पति का ही आहार करके जीते हैं ।।५८॥ विवेचन - मनुष्य और तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रियों के सचित्त शरीर में, पसीने आदि में जूं, लीख, चीचड़ (चर्म कीट) आदि तथा सचित्त शरीर के संस्पर्श से खाट आदि में खटमल आदि जीव पैदा होते हैं तथा मनुष्य एवं तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय प्राणियों के अचित्त शरीर (मृत कलेवर) में कृमि आदि उत्पन्न हो जाते हैं। सचित्त अग्निकाय तथा वायुकाय में भी विकलेन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति होती है। वर्षा ऋतु में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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