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________________ १०० श्री सूयगडांग-सूत्र श्रुतस्कध २ भावार्थ - इसी तरह कोई जीव तृणों में तृणरूप से उत्पन्न होते हैं और वे तृणयोनिक तृणों के शरीर का आहार करते हैं यह सब बातें पूर्ववत् जाननी चाहिए । इसी तरह कोई जीव, तृणयोनिक तृणों में मूल तथा बीज रूप से उत्पन्न होते हैं इनका वर्णन भी पूर्ववत् ही करना चाहिए । इसी तरह औषधि और हरित कार्यों के भी पूर्ववत् चार प्रकार से वर्णन करना चाहिए ॥५३ ॥ ____ अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ता पुढविजोणिया पुडविसंभवा जाव कम्मणियाणेणं तत्ववुक्कमा णाणाविहजोणियासु पुढवीसु आयत्ताए, वायत्ताए, कायत्ताए, कूहणत्ताए, कंदुकत्ताए, उव्वेहणियत्ताए, णिव्वेहणियत्ताए, सछत्ताए, छत्तगत्ताए, वासाणियत्ताए, कूरत्ताए विउद्वंति, ते जीवा तेसिं णाणाविहजोणियाणं पुढवीणं सिणेहमाहारेंति, तेवि जीवा आहारेंति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरेवि यणं तेसिं पुढविजोणियाणं आयत्ताणं जाव कराणं सरीरा णाणावण्णा जावमक्खायं एगो चेव आलावगो सेसा तिण्णि णस्थि ॥ - कठिन शब्दार्थ -आयत्ताए- आय (आर्य) नामक वनस्पति के रूप में, उव्वेहणियताए- उपेहणी नामक वनस्पति के रूप में। _भावार्थ - यहां मूल पाठ में आय (आर्य) वाय, काय तथा कुहण आदि वनस्पतियों की उत्पत्ति बताई गई है । इनका आकार कैसा होता है और लोक में इन्हें क्या कहते हैं यह यहां नहीं कहा गया है फिर भी लोक व्यवहार से इनके नाम और आकार जानने का प्रयत्न करना चाहिये । यद्यपि सभी स्थावर प्राणी चेतन हैं तथापि वनस्पतियों का चैतन्य स्पष्ट अनुभव किया जाता है इसलिये पहले इन्हीं का वर्णन दिया है। अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ता उदगजोणिया उद्धगसंभवा जाव कम्मणियाणेणं तत्ववुकमा णाणाविहजोणिएस उदएस रुक्खत्ताए विउटुंति, ते जीवा तेसिं णाणाविहजोणियाणं उदगाणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा आहारैति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरेवियणं तेसिं उदगजोणियाणं रुक्खाणं सरीरा णाणावण्णा जावमक्खायं। जहा पुढविजोणियाणं रुक्खाणं चत्तारि गमा अज्झारुहाणवि तहेव, तणाणं ओसहीणं हरियाणं चत्तारि आलावगा भाणियव्वा एकके ॥ भावार्थ - अपने पूर्वकृत कर्मों से प्रेरित होकर कोई प्राणी जल में वृक्ष रूप से उत्पन्न होते हैं वे उदकयोनिक वृक्ष कहलाते हैं वे जल में उत्पन्न होकर जल में ही स्थित रहते हुए उसी में वृद्धि को प्राप्त होते हैं । वे जल के स्नेह का तथा पृथिवी आदि कायों का आहार करते हैं शेष पृथिवीयोनिक वृक्षों के समान समझना चाहिये। जैसे पृथिवीयोनिक वृक्षों में चार आलापक कहे गये हैं उसी तरह उदकयोनिक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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