SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्ययन ३ ९९ और वनस्पति शरीरों का भी आहार करते हैं और आहार करके उन्हें अपने रूप में परिणत कर लेते हैं। उन अध्यारुहयोनिक अध्यारुह वृक्षों के दूसरे भी नाना वर्ण आदि से युक्त शरीर होते हैं यह भी तीर्थङ्कर देव ने कहा है ॥ ४९ ॥ अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ता अज्झारोह-जोणिया अज्झारोहसंभवा जाव कम्मणियाणेणं तत्थ-बुकमा अज्झारोहजोणिएसु अज्झारोहेसु मूलत्ताए जाव बीयत्ताए विउटृति, ते जीवा तेसिं अज्झारोहजोणियाणं अज्झारोहाणं सिणेहमाहारेंति जाव अवरेऽवियणं तेसिं अज्झारोहजोणियाणं मूलाणंजाव बीयाणं सरीराणाणावण्णा जावमक्खायं ॥५०॥ भावार्थ - श्री तीर्थकर देव ने अध्यारुह वृक्षों के भेद और भी बताये हैं । इस जगत् में कोई जीव अध्यारुह वृक्षों से उत्पन होकर उन्हीं में स्थिति और वृद्धि को प्राप्त करते हैं । वे अपने पूर्वकृत कर्म से प्रेरित होकर वहाँ आते हैं और अध्यारुहयोनिक अध्यारुह वृक्षों के मूल तथा कन्द आदि से लेकर बीज तक के रूपों में उत्पन्न होते हैं । वे जीव उन अध्यारुहयोनिक अध्यारुह वृक्षों के स्नेह का आहार करते हैं । उन अध्यारुहयोनिक मूल और बीज आदि के नाना वर्ण, गन्ध और रस स्पर्श वाले दूसरे शरीर भी तीर्थङ्करों ने कहे हैं ॥५०॥ . अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ता पुढविजोणिया पुढविसंभवा जाव णाणाविहजोणियास पुढवीसुतणत्ताए विउद्देति, ते जोवा तेसिंणाणाविहजोणियाणं पुढवीणं सिणेहमाहारेंति जाव ते जीवा कम्मोववण्णा भवतीतिमक्खायं ॥५१॥ भावार्थ - श्री तीर्थकर देव ने वनस्पति काय के जीवों का और भेद भी कहा है । कोई प्राणी पृथिवी से उत्पन्न और पृथिवी पर ही स्थिति और वृद्धि को प्राप्त करते हुए नाना प्रकार की जातिवाली पृथिवी के ऊपर तृण रूप से उत्पन्न होते हैं । वे जीव नाना प्रकार की जाति वाली पृथिवी के स्नेह का आहार करते हैं । वे जीव कर्म से प्रेरित होकर तृणयोनि में उत्पन्न होते हैं । यह श्री तीर्थकर देव ने कहा है. ॥५१ ॥ . . एवं पुढविजोणिएस तणेसुतणत्ताए विउटुंति जावमक्खायं ॥५२॥ भावार्थ - इसी तरह कोई प्राणी पृथिवीयोनिक तृणों में तृणरूप से उत्पन्न होते हैं यह सब पूर्ववत् जानना चाहिये ॥५२ ॥ ___एवं तणजोणिएस तणेसु तणत्ताए विउद॒ति, तणजोणियं तणसरीरं च आहारेंति जावमक्खायं ॥ एवं तणजोणिएसु तणेसु मूलत्ताए जाव बीयत्ताए विउटुंति ते जीवा जाव एवमक्खायं ॥ एवं ओसहीणवि चत्तारि आलावगा ॥ एवं हरियाणवि चत्तारि आलावगा ॥५३॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy