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स्थान ५ उद्देशक ३
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लगा कर चारित्र की विराधना करने वाला साधु । लिङ्ग पुलाक - परिमाण से अधिक वस्त्रादि रखने वाला साधु और पांचवां यथासूक्ष्म पुलाक - कुछ प्रमाद होने से मन से अकल्पनीय ग्रहण करने के विचार वाला साधु । अथवा उपरोक्त चारों भेदों में थोड़ी थोड़ी विराधना करने वाला साधु यथासूक्ष्मपुलाक कहलाता है। बकुश - शरीर और उपकरण की शोभा करने से चारित्र को मलिन करने वाला साधुः बकुश कहा जाता है। वह पांच प्रकार का कहा गया है यथा - आभोगबकुश - शरीर और उपकरण की विभूषा करना साधु के लिए निषिद्ध है यह जानते हुए भी शरीर और उपकरण की विभूषा करके चारित्र में दोष लगाने वाला साधु आभोग बकुश कहलाता है। अनाभोगबकुश - अनजान से शरीर और उपकरण की विभूषा करके चारित्र को दूषित करने वाला साधु । संवृत्तबकुश - छिप कर शरीर और उपकरण की विभूषा करने वाला साधु । असंवृत्तबकुश - प्रकट रीति से शरीर और उपकरण की विभूषा करके चारित्र को दूषित करने वाला साधु । अथवा मूलगुण और उत्तरगुणों में दोष लगाने वाला साधु । यथासूक्ष्मबकुश - कुछ प्रमाद करने वाला एवं आंख का मैल आदि दूर करने वाला साधु यथासूक्ष्म बकुश कहलाता है। कुशील - मूलगुणों तथा उत्तरगुणों में दोष लगाने से तथा संज्वलन कषाय के उदय से दूषित चारित्र वाला साधु कुशील कहा जाता है। इसके दो भेद हैं - प्रतिसेवना कुशील और कषायकुशील। चारित्र के प्रति अभिमुख होते हुए भी अजितेन्द्रिय तथा किसी तरह पिण्डविशुद्धि, समिति, भावना, तप आदि उत्तरगुणों की तथा मूलगुणों की विराधना करने से सर्वज्ञ की आज्ञा का उल्लंघन करने वाला प्रतिसेवना कुशील हैं। संज्वलन कषाय के उदय से सकषाय चारित्र वाला साधु कषायकुशील कहा जाता है। प्रतिसेवनाकुशील और कषायकुशील प्रत्येक के पांच पांच भेद कहे गये हैं यथा - ज्ञान, दर्शन, चारित्र और लिङ्ग इनमें दोष लगाने वाला साधु क्रमशः प्रतिसेवना की अपेक्षा ज्ञानकुशील, दर्शनकुशील, चारित्रकुशील और लिङ्गकुशील कहा जाता है। पांचवां यथासूक्ष्मकुशीलअपने तप, संयम, ज्ञानादि गुणों की प्रशंसा को सुन कर हर्षित होने वाला साधु प्रतिसेवना की अपेक्षा यथासूक्ष्म कुशील है। कषायकुशील के भी ये ही पांच भेद हैं। उनका स्वरूप इस प्रकार है - ज्ञानकुशील - संज्वलन कषाय के वश विदयादि ज्ञान का प्रयोग करने वाला साधु । दर्शनकुशील - संज्वलन कषाय के वश दर्शन या दर्शनग्रन्थ का प्रयोग करने वाला साधु। चारित्रकुशील - संज्वलन कषाय के आवेश में किसी को श्राप देने वाला साधु । ॐ लिङ्ग कुशील - संग्वलन कषाय के वश अन्य लिङ्ग धारण करने वाला साधु । यथासूक्ष्म कुशील - मन से संप्वलन कषाय करने वाला साधु यथासूक्ष्म कुशील है । अथवा - संज्वलन कषाय सहित होकर ज्ञान, दर्शन, चारित्र और लिङ्गकी विराधना करने पाला साधु क्रमशः ज्ञानकुशील, दर्शनकुशील, चारित्रकुशील और लिजकुशील कहलाते हैं और मन से
*लिंग कुशील के स्थान पर कहीं कहीं तप कुशील भी है।
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