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श्री स्थानांग सूत्र
१. आक्रान्त - पैर आदि से जमीन वगैरह के दबने पर जो वायु उठती है वह आक्रान्त वायु है। २.मात - धमणी आदि के धमने से पैदा हुई वायु ध्मात वायु है। ३. पीड़ित - गीले वस्त्र के निचोड़ने से निकलने वाली वायु पीड़ित वायु है। ४. शरीरानुगत - डकार आदि लेते हुए निकलने वाली वायु शरीरानुगत वायु है। ..
५. सम्मूर्छिम - पंखे आदि से पैदा होने वाली वायु सम्मूर्छिम वायु है। वह उठती हुई तो अचित है परन्तु उठने के बाद सचित वायु का नाश करती है। इसलिये साधु-साध्वी के.लिये ये वर्जित है।
ये पाँचों प्रकार की अचित्त वायु पहले अचेतन होती है और बाद में सचेतन भी हो जाती है। - तेठकाय और वायुकाय भी गति की अपेक्षा त्रस कहे गये हैं किन्तु यहाँ उनका ग्रहण नहीं है । यहां तो बेइन्द्रियादि त्रस लिये गये हैं । इसीलिए सूत्र में 'ओराल' शब्द दिया है जिसका अर्थ यह है - "ओराला: - स्थूलाः एकेन्द्रियापेक्षया" एकेन्द्रियों की अपेक्षा स्थूल त्रस प्राणी यानी बेइन्द्रियादि त्रस यहां ग्रहण किये गये हैं। .
निर्ग्रन्थ पांच पंच णियंठा पण्णत्ता तंजहा - 'पुलाए, बउसे, कुसीले, णियंठे णिग्गंथे, . सिणाए । पुलाए पंचविहे पण्णत्ते तंजहा - णाणपुलाए, दंसणपुलाए, चरित्तपुलाए, लिंगपुलाए, अहासुहमपुलाए णामं पंचमे । बउसे पंचविहे पण्णत्ते तंजहा - आभोग बउसे, अणाभोग बउसे, संवुडबउसे, असंवुडबउसे, अहासुहमबउसे णामं पंचमे । कुसीले पंचविहे पण्णत्ते तंजहा - णाणकुसीले, दंसणकुसीले, चरित्तकुसीले, लिंगकुसीले, अहासहमकुसीले णामं पंचमे । णियंठे पंचविहे पण्णत्ते तंजहा - पडमसमयणियंठे, अपढमसमयणियंठे, चरिमसमयणियंठे, अचरिमसमयणियंठे, अहासुहुमणियंठे । सिणाए पंचविहे पण्णत्ते तंजहा - अच्छवी, असबले, अकम्मंसे, संसुद्धणाण दंसणधरे अरहा जिणे केवली, अपरिस्सावी॥३१॥
भावार्थ - पांच निर्ग्रन्थ कहे गये हैं यथा - पुलाक, बकुश, कुशील, निग्रंथ और स्नातक । जो साधु लब्धि का प्रयोग करके और ज्ञानादि के अतिचारों का सेवन करके संयम को निस्सार बना देता है वह पुलाक कहलाता है । लब्धि का प्रयोग करने वाला साधु लब्धिपुलाक कहलाता है और ज्ञानादि के अतिचारों का सेवन करने वाला साधु प्रतिसेवी पुलाक कहलाता है। इस प्रकार पुलाक के दो भेद होते हैं। यथा - लब्धिपुलाक और प्रतिसेवापुलाक । पुलाक पांच प्रकार का कहा गया है यथा - ज्ञान पुलाक - ज्ञान के अतिचारों का सेवन करके संयम को निस्सार बनाने वाला साधु । दर्शनपुलाक - समकित के अतिचारों का सेवन करने वाला साधु । चारित्रपुलाक - मूलगुण और उत्तरगुणों में दोष
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