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स्थान ५ उद्देशक २ 000000000000000000000000000000000000000000000000000
गणापक्रमण पंचहिं ठाणेहिं आयरियउवज्झायस्स गणावक्कमणे पण्णत्ते तंजहा - आयरियउवज्झाए गणंसि आणं वा धारणं वा णो सम्मं पउंजित्ता भवइ । आयरियउवज्झाए गणंसि अहारायणियाए किइकम्मं वेणइयं णो सम्मं पउंजित्ता भवइ। आयरियउवज्झाए गणंसि जे सुयपज्जवजाए धारिति ते काले णो सम्मं अणुपवाइत्ता भवइ ।आयरियउवज्झाए गणंसि सगणियाए वा पर गणियाए वा णिग्गंथीए बहिल्लेसे भवइ । मित्ते णाइगणे वा से गणाओ अवक्कमेजा तेसिं संगहोवग्गहट्टयाए गणावक्कमणे पण्णत्ते। .
- ऋद्धिवन्त . पंचविहा इड्डिमंता मणुस्सा पण्णत्ता तंजहा - अरिहंता, चक्कवट्टी, बलदेवा,
वासुदेवा, भावियप्पाणो अणगारा॥२८॥ ... ॥पंचम ट्ठाणस्स बिईओ उद्देसो समत्तो ।
कठिन शब्दार्थ - गणावक्कमणे - गणापक्रमण, गणंसि - गण में, आणं - आज्ञा, धारणं - धारणा, किड़कम्मं - कृतिकर्म-वन्दना, वेणइयं - विनय, अणुपवाइत्ता - वाचना, बहिल्लेसे - बर्हिलेश्य-आसक्त, संगहोवग्गहटाए - सहायता करने के लिये, इड्डिमंता - ऋद्धिवन्त, भावियप्पाणोभावितात्मा ।
भावार्थ - पांच कारणों से आचार्य उपाध्याय का गणापक्रमण कहा गया है अर्थात् पांच कारणों से आचार्य उपाध्याय गच्छ से निकल जाते हैं यथा - गच्छ में साधुओं के दुर्विनीत हो जाने पर आचार्य उपाध्याय अपने गच्छ में इस प्रकार प्रवत्ति करो, इस प्रकार प्रवृत्ति न करो' इत्यादि प्रवृत्ति निवृत्ति रूप आज्ञा और धारणा को यथायोग्य सम्यग् न प्रवर्ता सकें । आचार्य उपाध्याय अपने पद के अभिमान से रत्नाधिक यानी दीक्षा में अपने से बड़े साधुओं का यथायोग्य वन्दना और विनय न करें तथा अपने गच्छ के साधुओं में छोटे साधुओं से बड़े साधुओं को वन्दना तथा उनका विनय न करा सकें । आचार्य उपाध्याय जो सूत्रों के अध्ययन उद्देशक आदि धारण किये हुए हैं उनकी यथासमय अपने गच्छ के साधुओं को वाचना न दें । वाचना न देने में दोनों तरफ की अयोग्यता हो सकती है जैसे कि गच्छ के साधु अविनीत हों अथवा आचार्य उपाध्याय भी सुखासक्त तथा मन्दबुद्धि वाले हो सकते हैं । गच्छ में रहे हुए आचार्य उपाध्याय अपने गच्छ की अथवा दूसरे गच्छ की साध्वी में मोहवश आसक्त हो जायें । आचार्य उपाध्याय के मित्र अथवा उनकी जाति के लोग उनको गच्छ से निकालें । उन लोगों की बात
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