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स्थान ५ उद्देशक २
तीर्थंकरों के साधुओं के यावत्कथिक सामायिक होती है। क्योंकि इन तीर्थंकरों के शिष्यों को दूसरी बार सामायिक व्रत नहीं दिया जाता।
२. छेदोपस्थापनिक संयम जिस चारित्र में पूर्व पर्याय का छेद एवं महाव्रतों में उपस्थापनआरोपण होता है उसे छेदोपस्थापनिक संयम कहते हैं ।
पूर्व पर्याय का छेद करके जो महाव्रत दिये जाते हैं उसे छेदोपस्थापनिक संयम कहते हैं।
यह चारित्र भरत, ऐरावत क्षेत्र के प्रथम एवं चरम तीर्थंकरों के तीर्थ में ही होता है शेष तीर्थंकरों तीर्थ में नहीं होता। छेदोपस्थापनिक संयम के दो भेद हैं.
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१. निरतिचार छेदोपस्थापनिक २. सातिचार छेदोपस्थापनिक ।
१. निरतिचार छेदोपस्थापनिक - इत्वर सामायिक वाले शिष्य के एवं एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ में जाने वाले साधुओं के जो महाव्रतों का आरोपण होता है। वह निरतिचार छेदोपस्थापनिक चारित्र है।
२. सातिचार छेदोपस्थापनिक - मूल गुणों का घात करने वाले साधु के जो महाव्रतों का आरोपण होता है वह सातिचार छेदोपस्थापनिक चारित्र है ।
३. परिहार विशुद्धिं संयम - जिस चारित्र में परिहार तप विशेष से कर्म निर्जरा रूप शुद्धि होती है । उसे परिहार विशुद्धि संयम कहते हैं ।
जिस चारित्र में अनेषणीयादि का परित्याग विशेष रूप से शुद्ध होता है। वह परिहार विसुद्धि संयम है।
स्वयं तीर्थंकर भगवान् के समीप, या तीर्थंकर भगवान् के समीप रह कर पहले जिसने परिहार विशुद्धि चारित्र अंगीकार किया है उसके पास यह चारित्र अंगीकार किया जाता है। यह चारित्र दो पाट तक ही चलता है। नव साधुओं का गण परिहार तप अंगीकार करता है। इन में से चार साधु तप करते हैं जो पारिहारिक कहलाते हैं। और जो चार साधु वैयावृत्य करते हैं वे अनुषारिहारिक कहलाते हैं और . एक कल्पस्थित अर्थात् गुरु रूप में रहता है जिसके पास पारिहारिक एवं अनुपारिहारिक साधु आलोचना, वन्दना, प्रत्याख्यान आदि करते हैं। पारिहारिक साधु ग्रीष्म ऋतु में जघन्य एक उपवास, मध्यम बेला (दो उपवास) और उत्कृष्ट तेला (तीन उपवास) तप करते हैं। शिशिर काल (सर्दी) में जघन्य बेला, मध्यम तेला और उत्कृष्ट (चार उपवास) चौला तप करते हैं। वर्षा काल में जघन्य तेला, मध्यम चौला और उत्कृष्ट पचौला तप करते हैं। शेष चार आनुपारिहारिक एवं कल्पस्थित (गुरु रूप) पाँच साधु प्रायः नित्य भोजन करते हैं। ये उपवास आदि नहीं करते। आयंबिल के सिवाय ये और भोजन नहीं करते अर्थात् सदा आयंबिल ही करते हैं। इस प्रकार पारिहारिक साधु छह मास तक तप करते हैं। छह मास तक तप कर लेने के बाद वे अनुपारिहारिक अर्थात् वैयावृत्य करने वाले हो जाते हैं और वैयावृत्य करने वाले (आनुपारिहारिक) साधु पारिहारिक बन जाते हैं अर्थात् तप करने लग जाते
गुरु रूप
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