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श्री स्थानांग सूत्र
क्रिया और मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी। मिथ्यादृष्टि नैरयिकों में पांच क्रियाएं कही गई हैं यथा - आरम्भिकी यावत् मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी। वैमानिक देवों तक चौवीस ही दण्डकों में सभी मिथ्यादृष्टि जीवों के इसी प्रकार पांच क्रियाएं जान लेनी चाहिए किन्तु विकलेन्द्रिय यानी एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौरिन्द्रिय इन के साथ मिथ्यादृष्टि विशेषण लगाने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि विकलेन्द्रिय * सम्यग्दृष्टि नहीं होते हैं वे मिथ्यादृष्टि होते हैं। पांच क्रियाएं कही गई हैं यथा - कायिकी, आधिकरणिकी, प्राद्वेषिकी, पारितापनिकी और प्राणातिपातिकी क्रिया। नैरयिकों से लेकर वैमानिक देवों तक सभी चौवीस ही दण्डकों के जीवों में ये उपरोक्त पांचों क्रियाएं पाई जाती हैं। पांच क्रियाएं कही गई हैं यथा - आरम्भिकी यावत् मिथ्यादर्शन प्रत्ययिकी। नैरयिकों से लेकर वैमानिक देवों तक सभी चौबीस ही दण्डकों के जीवों में ये उपरोक्त पांच क्रियाएं पाई जाती है। पांच क्रियाएं कही गई है यथा -'दृष्टिजा, पृष्टिजा या स्पृष्टिजा, प्रातीत्यिकी, सामंतोपनिपातिकी और स्वहस्तिकी। नैरयिकों से लेकर वैमानिक देवों तक चौबीस ही दण्डकों के जीवों में ये उपरोक्त क्रियाएं पाई जाती हैं। पांच क्रियाएं कही गई हैं यथा - नैसृष्टिकी, आज्ञापनी, वैदारिणिकी, अनाभोग प्रत्यया, अनवकांक्षा प्रत्यया। नैरयिकों से लेकर वैमानिक देवों तक चौबीस ही दण्डकों के जीवों में ये उपरोक्त क्रियाएं पाई जाती हैं। पांच क्रियाएं कही गई हैं यथा-रागप्रत्यया, द्वेषप्रत्यया, प्रयोगक्रिया, सामुदानिकी क्रिया और ईर्यापथिकी। ये उपरोक्त पांचों क्रियाएं मनुष्यों में ही पाई जाती हैं, बाकी तेईस दण्डकों के जीवों में से किसी में भी नहीं पाई जाती हैं।
विवेचन - आस्रव - जिनसे आत्मा में आठ प्रकार के कर्मों का प्रवेश होता है वह आस्रव है।
जीव रूपी तालाब में कर्म रूप पानी का आना आस्रव है। जैसे जल में रही हुई नौका (नाव) में छिद्रों द्वारा जल प्रवेश होता है। इसी प्रकार जीवों की पाँच इन्द्रिय, विषय, कषायादि रूप छिद्रों द्वारा कर्म रूप पानी का प्रवेश होता है। नाव में छिद्रों द्वारा पानी का प्रवेश होना द्रव्य आस्रव है और जीव में विषय कषायादि से कर्मों का प्रवेश होना भावास्रव कहा जाता है।
आस्रव के पाँच भेद - १. मिथ्यात्व २. अविरति ३. प्रमाद ४. कषाय ५. योग।
१. मिथ्यात्व - मोहवश तत्त्वार्थ में श्रद्धा न होना या विपरीत श्रद्धा होना मिथ्यात्व कहा जाता है। यथा
अदेवे देवबुद्धिर्या, गुरुधी रगुरौ च या। अधर्म धर्म बुद्धिश्च, मिथ्यात्वं तद् विपर्ययात् (मिथ्यात्वं तन्निगद्यते)
अर्थ - जिनमें रागद्वेष पाया जाता है उसे देव अर्थात् ईश्वर मानना, पांच महाव्रतधारी गुरु कहलाता है किन्तु महाव्रत रहित को गुरु मानना तथा दयामय धर्म होता है किन्तु दया रहित को धर्म मानना उसे मिथ्यात्व कहते हैं। विपरीत मान्यता के कारण यह मिथ्यात्व कहलाता है।
*यहाँ सामान्य रूप से विकलेन्द्रियों का ग्रहण है। अपर्याप्त अवस्था में विकलेन्द्रिय सम्यग् दृष्टि हो सकते हैं।
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