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श्री स्थानांग सूत्र
कुलकोटियाँ, पापकर्म और पुद्गलों की अनंतता
चउप्पयथलयर पंचिंदियतिरिक्ख जोणियाणं दस जाइ कुलकोडि जोणी पमुह सयसहस्सा पण्णत्ता । उरपरिसप्प थलयर पंचिंदिय तिरिक्ख जोणियाणं दस जाइकुल कोड जोणी पमुह सयसहस्सा पण्णत्ता ।
जीवाणं दस ठाणणिव्वत्तिए पोग्गले पाव कम्मत्ताए चिणिंसु वा चिणंति वा चिणिस्संति वा तंजहा - पढमसमय एगिंदिय णिव्वत्तिए जाव पंचिंदिय णिव्वत्तिए । एवं चिण उवचिण बंध उदीर वेय तह णिज्जरा चेव । दस पएसिया खंधा अनंता पण्णत्ता । दस पएसोगाढा पोग्गला अणंता पण्णत्ता । दससमय ठिझ्या पोग्गला अता पण्णत्ता । दसगुण कालगा पोग्गला अणंता पण्णत्ता । एवं वण्णेहिं गंधेहिं रसेहिं फासेहिं जाव दसगुण लुक्खा पोग्गला अणंता पण्णत्ता॥ १४२ ॥
।। सम्मत्तं च ठाणमिति । दसमं ठाणं समत्तं ।
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।। दसमं अज्झयणं समत्तं ॥
भावार्थ - चतुष्पद स्थलचर तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय जीवों की दस लाख कुलकोड़ी कही गई है । उरपरिसर्प स्थलचर तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय जीवों की दस लाख कुलकोडी कही गई है ।
जीवों ने दस स्थान निर्वर्तित पुद्गलों का पापकर्म रूप सञ्चय किया था, सञ्चय करते हैं और सञ्चय करेंगे यथा - प्रथम समय एकेन्द्रिय निर्वर्तित यावत् अप्रथमसमय पञ्चेन्द्रिय निर्वर्तित अर्थात् एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय इन प्रत्येक के प्रथम समय और अप्रथम समय ये दो दो भेद करने से दस भेद हो जाते हैं । इन दस प्रकार से उत्पन्न होकर जीवों ने पाप कर्म रूप से पुद्गलों का सञ्चय किया था । इस समय वर्तमान काल में सञ्चय करते हैं और आगामी काल में भी सञ्चय करेंगें । इस प्रकार सञ्चय उपचय, बन्ध, उदीरणा, वेदन तथा निर्जरा इन प्रत्येक का भूत भविष्यत् और वर्तमान इन तीनों कालों की अपेक्षा से कथन कर देना चाहिए । दस प्रदेशिक स्कन्ध अनन्त कहे गये हैं । दस प्रदेशावगाढ पुद्गल अनन्त कहे गये हैं । दस समय की स्थिति वाले पुद्गल अनन्त कहे गये हैं । दस गुण काले पुद्गल अनन्त कहे गये हैं । इसी तरह वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श की अपेक्षा भी कह देना चाहिए । यावत् दस गुणरूक्ष पुद्गल अनन्त कहे गये हैं ।
।। दसवाँ स्थान समाप्त । दसवां अध्ययन समाप्त ॥
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।। इति श्री स्थानाङ्ग सूत्र समाप्त ॥
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