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________________ श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000 .. २. लगण्डशायी - दुःसंस्थित या बांकी लकड़ी को लगण्ड कहते हैं। लगण्ड की तरह कुबड़ा होकर मसत्क और कोहनी को जमीन पर लगाते हुए एवं पीठ से जमीन को स्पर्श न करते हुए सोने वाला साधु लगण्ड शायी कहलाता है। ____३. आतापक - शीत, आतप आदि सहन करने रूप आतापना लेने वाला साधु आतापक कहा जाता है। ___४. अप्रावृतक - वस्त्र न पहन कर शीत काल में ठण्ड और ग्रीष्म में घाम (गर्मी और धूप) का सेवन करने वाला अप्रावृतक कहा जाता है। ५. अकण्डूयक- शरीर में खुजली चलने पर भी न खुजलाने वाला साधु अकण्डूयक कहलाता है। ___ महानिर्जरा और महापर्यवसान पंचहिं ठाणेहिं समणे णिग्गंथे महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ तंजहा - अगिलाए आयरियवेयावच्चं करेमाणे, अगिलाए उवज्झायवेयावच्चं करेमाणे, अगिलाए थेरवेयावच्चं करेमाणे, अगिलाए तवस्सिवेयावच्चं करेमाणे, अगिलाए गिलाण वेयावच्चं करेमाणे । पंचहिं ठाणेहि समणे णिग्गंथे महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ तंजहा - अगिलाए सेहवेयावच्चं करेमाणे, अगिलाए कुलवेयावच्चं करेमाणे, अगिलाए गणवेयावच्चं करेमाणे, अगिलाए संघवेयावच्चं करेमाणे, अगिलाए साहम्मियवेयावच्चं करेमाणे॥६॥ . कठिन शब्दार्थ - महाणिज्जरे - महा निर्जरा वाला, महापजवसाणे - महा पर्यवसान वाला, अगिलाए- अग्लान भाव से-ग्लानि रहित, वेयावच्चं - वैयावृत्य, करेमाणे - करता हुआ, सेहवेयावच्चंशैक्ष की वैयावृत्य। . भावार्थ - पांच कारणों से श्रमण निर्ग्रन्थ महानिर्जरा और महापर्यवसान वाला होता है यथा - अग्लान भाव से आचार्य की वेयावच्च (वैयावृत्य) करता हुआ, ग्लानि रहित उपाध्याय की वेयावच्च करता हुआ, अग्लान भाव से स्थविर साधुओं की वेयावच्च करता हुआ, अग्लान भाव से तपस्वी की वेयावच्च करता हुआ और ग्लानि रहित ग्लान यानी बीमार साधु की वेयावच्च करता हुआ श्रमण निर्ग्रन्थ महानिर्जरा वाला होता है और फिर जन्म न होने के कारण महापर्यवसान अर्थात् आत्यन्तिक अन्त वाला होता है । पांच कारणों से श्रमण निर्ग्रन्थ महानिर्जरा वाला और महापर्यवसान वाला होता है यथा- अग्लान भाव से शैक्ष यानी नवदीक्षित साधु की वेयावच्च करता हुआ, अग्लान भाव से साधुओं के कुल की वेयावच्च करता हुआ, अग्लान भाव से साधुओं के गण की वेयावच्च करता हुआ, अग्लान भाव से संघ की वेयावच्च करता हुआ और अग्लान भाव से साधर्मिक की वेयावच्च करता हुआ साधु महानिर्जरा वाला और महापर्यवसान वाला होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
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