________________
स्थान ५ उद्देशक १
१९
५. स्वक्षाहार - नीरस, घी, तेलादि वर्जित भोजन करने वाला साधु रूक्षाहार कहलाता है।
ये भी पांच अभिग्रह विशेषधारी साधुओं के प्रकार हैं। इसी प्रकार जीवन पर्यन्त अरस, विरस, अन्त, प्रान्त एवं रूक्ष भोजन से जीवन निर्वाह के अभिग्रह वाले साधु अरसजीवी, विरसजीवी, अन्तजीवी, प्रान्तजीवी एवं रूक्षजीवी कहलाते हैं।
भगवान् महावीर से उपदिष्ट एवं अनुमत पांच स्थान - १. स्थानातिग २. उत्कटुकासनिक ३. प्रतिमास्थायी ४. वीरासनिक ५. नैषधिक।
१. स्थानातिग- अतिशय रूप से स्थान अर्थात् कायोत्सर्ग करने वाला साधु स्थानातिग कहलाता है।
२. उत्कटुकासनिक- पीढे वगैरह पर कूल्हे (पुत) न लगाते हुए पैरों पर बैठना उत्कटुकासन है। उत्कटुकासन से बैठने के अभिग्रह वाला साधु उत्कटुकासनिक कहा जाता है।
३. प्रतिमास्थायी - एक रात्रिकी आदि प्रतिमा अङ्गीकार कर कायोत्सर्ग विशेष में रहने वाला साधु प्रतिमास्थायी है।
४.वीरासनिक - पैर जमीन पर रख कर सिंहासन पर बैठे हुए पुरुष के नीचे से सिंहासन निकाल लेने पर जो अवस्था रहती है उस अवस्था से बैठना वीरासन है। यह आसन बहुत दुष्कर है। इसलिये. इसका नाम वीरासन रखा गया है। वीरासन से बैठने वाला साधु वीरासनिक कहलाता है।
५. नैषधिक- निषद्या अर्थात् बैठने के विशेष प्रकारों से बैठने वाला साधु नैषधिक कहा जाता है। निषद्या के पाँच भेद - १. समपादयुता २. गोनिषधिका ३. हस्तिशुण्डिका ४. पर्यङ्का ५. अर्द्ध पर्यका।
१. समपादयुता - जिस में समान रूप से पैर और कूल्हों से पृथ्वी या आसन का स्पर्श करते हुए : बैठा जाता है वह समपादयुता निषधा है।
२. गोनिषधिका - जिस आसन में गाय की तरह बैठा जाता है वह गोनिषधिका है।
३. हस्तिशुण्डिका - जिस आसन में कूल्हों पर बैठ कर एक पैर ऊपर रक्खा जाता है वह हस्तिशुण्डिका निषधा है।
४. पर्यङ्का - पद्मासन से बैठना पर्यङ्का निषधा है। ५. अर्द्ध पर्यका - जंघा पर एक पैर रख कर बैठना अर्चपर्यङ्का निषद्या है।
पाँच निषद्या में हस्तिशुण्डिका के स्थान पर उत्कटुका भी कहते हैं। उत्कटुका - आसन पर कूल्हा (पुत) न लगाते हुए पैरों पर बैठना उत्कटुका निषद्या है।
भगवान् महावीर से उपदिष्ट एवं अनुमत पांच स्थान - १. दण्डायतिक २. लगण्डशायी ३. आतापक ४. अप्रावृतक ५. अकण्डूयक।
१. दण्डायतिक - दण्ड की तरह लम्बे होकर अर्थात् पैर फैला कर बैठने वाला दण्डायत्रिक कहलाता है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org