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________________ ३४८ श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000 ___ मूल गाथा में दिये गये नाम वर्तमान में उपलब्ध अनुत्तरौपपातिक दशा सूत्र के तीसरे वर्ग के नामों के साथ कुछ मिलते हैं और कुछ नहीं। वहाँ पर ये नाम हैं - धन्य, सुनक्षत्र, ऋषिदास, पैल्लक, रामपुत्र, चन्द्रमा, पोट्टिक, पेढालपुत्र, पोट्टिल और विहल्लकुमार ।। वर्तमान में उपलब्ध प्रश्नव्याकरण सूत्र में ये उपरोक्त गाथा में दिये गये अध्ययन नहीं पाये जाते हैं। किन्तु प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह इन पांच आस्रवों को बताने वाले पांच आस्रव द्वार हैं और इन आस्रवों से निवृत्ति रूप पांच संवर द्वार हैं । इस प्रकार आस्रव और संवर के दस द्वार हैं। टीकाकार ने लिखा है कि बन्धदशा, द्विगृद्धिदशा, दीर्घदशा, संक्षेपिकदशा इन चार सूत्रों का विच्छेद हो चुका है वर्तमान में उपलब्ध नहीं है। परन्तु दीर्घदशा के कुछ अध्ययनों के नाम निरयावलिका सूत्र के अध्ययनों के साथ मिलते हैं । दस प्रकार के नैरयिक और स्थिति ____दसविहा णेरइया पण्णत्ता तंजहा - अणंतरोववण्णगा, परंपरोववण्णगा, . अणंतरावगाढा, परंपरावगाढा, अणंतराहारगा, परंपराहारगा, अणंतरपज्जत्तगा, : परंपरपज्जत्तगा, चरिमा, अचरिमा, एवं णिरंतरं जाव वेमाणिया । चउत्थीए णं पंकप्पभाए पुढवीए दस णिरयावास सयसहस्सा पण्णत्ता । रयणप्पभाए पुढवीए जहण्णेणं णेरइयाणं दसवाससहस्साई ठिई पण्णत्ता । चउत्थीए णं पंकप्पभाए पुढवीए उक्कोसेणं णेरइयाणं दस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता ।पंचमीए णं धूमप्पभाए पुढवीए जहण्णेणं णेरइयाणं दस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता । असुरकुमाराणं जहण्णेणं दसवाससहस्साइंठिई पण्णत्ता एवं जाव थणियकुमाराणं । बायर वणस्सइकाइयाणं उक्कोसेणं दसवाससहस्साई ठिई पण्णत्ता । वाणमंतरदेवाणं जहण्णेणं दस वास सहस्साई ठिई पण्णत्ता । बंभलोए कप्पे उक्कोसेण देवाणं दस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता ।लंतए कप्पे देवाणं जहण्णेणं दस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता॥१३३॥ कठिन शब्दार्थ - अणंतर पजत्तगा - अनन्तर पर्याप्तक, परंपरपजत्तगा - परम्पर पर्याप्तक । भावार्थ - नारकी जीव दस प्रकार के कहे गये हैं यथा - अनन्तरोपपन्नक, परम्परोपपन्नक, अनन्तरावगाढ, परम्परावगाढ, अनन्तराहारक, परम्पराहारक, अनन्तर पर्याप्तक, परम्परा पर्याप्तक, चरम और अचरम । इसी प्रकार वैमानिक देवों तक चौबीस ही दण्डक के जीवों के दस दस भेद होते हैं । चौथी पङ्कप्रभा नरक में दस लाख नरकावास कहे गये हैं । रत्नप्रभा नरक में नारकी जीवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की कही गई है । चौथी पङ्कप्रभा नरक में नारकी जीवों की उत्कृष्ट Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
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