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स्थान १०
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नारकी जीवों से लेकर वैमानिक देवों तक चौबीस ही दण्डक में ये दस संज्ञाएं पाई जाती हैं । नारकी जीव दस प्रकार की वेदना-पीड़ा भोगते हैं यथा - शीत, उष्ण, क्षुधा - भूख, प्यास, खुजली, परतन्त्रता, भय, शोक, ज्वर या जरा और व्याधि । .. . विवेचन - जिस जीव के मोहनीय कर्म उपशान्त या क्षीण नहीं हुआ है उसकी तत्त्वार्थ श्रद्धा को सराग सम्यग्दर्शन कहते हैं। इसके निसर्ग रुचि से लेकर धर्म रुचि तक ऊपर लिखे अनुसार दस भेद हैं।
संज्ञा - वेदनीय और मोहनीय कर्म के उदय से तथा ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम से पैदा होने वाली आहारादि की प्राप्ति के लिये आत्मा की क्रिया विशेष को संज्ञा कहते हैं। अथवा जिन बातों से यह जाना जाय कि जीव आहार आदि को चाहता है उसे संज्ञा कहते हैं। किसी के मत से मानसिक ज्ञान ही संज्ञा है अथवा जीव का आहारादि विषयक चिन्तन संज्ञा है। इसके दस भेद हैं
१. आहार संज्ञा - क्षुधावेदनीय के उदय से कवलादि आहार के लिए पुद्गल ग्रहण करने की इच्छा को आहार संज्ञा कहते हैं।
२. भय संज्ञा - भयवेदनीय के उदय से व्याकुल चित्त वाले पुरुष का भयभीत होना, घबराना, रोमाञ्च, शरीर का कॉपना आदि क्रियाएं भय संज्ञा है।
३. मैथुन संज्ञा - पुरुषवेद के उदय से स्त्री के अंगों को देखने, छूने आदि की इच्छा एवं स्त्री वेद के उदय से पुरुष के अङ्गों को देखने छूने आदि इच्छा तथा नपुंसक वेद के उदय से उभय (पुरुष और स्त्री दोनों) के अङ्गादि को देखने छूने की इच्छा तथा उससे होने वाले शरीर में कम्पन आदि को, जिन से मैथुन की इच्छा जानी जाय, मैथुन संज्ञा कहते हैं।
४. परिग्रह संज्ञा - लोभरूप कषाय मोहनीय के उदय से संसार बन्ध के कारणों में आसक्ति पूर्वक संचित्त और अचित्त द्रव्यों को ग्रहण करने की इच्छा परिग्रह संज्ञा कहलाती है।
५. क्रोध संज्ञा - क्रोध रूप कषाय मोहनीय के उदय से आवेश में भर जाना, मुँह का सूखना, आँखें लाल हो जाना और काँपना आदि क्रियाएं क्रोध संज्ञा हैं।
६. मान संज्ञा - मान रूप कषाय गोहनीय के उदय से आत्मा के अहङ्कारादिरूप परिणामों को मान संज्ञा कहते हैं।
७. माया संज्ञा - माया रूप कषाय मोहनीय के उदय से बुरे भाव लेकर दूसरे को ठगना, झूठ बोलना आदि माया संज्ञा है।
८. लोभ संज्ञा - लोभ रूप कषाय मोहनीय के उदय से सचित्त या अचित्त पदार्थों को प्राप्त करने की लालसा करना लोभ संज्ञा है। "
९. ओघ संज्ञा - मतिज्ञानावरण आदि के क्षयोपशम से शब्द और अर्थ के सामान्य ज्ञान को ओघ संज्ञा कहते हैं।
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