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श्री स्थानांग सूत्र
वस्तुदोष में भी प्रत्यक्ष निराकृत आदि कई विशेष है । तज्जात दोष - प्रतिवादी की जाति, कुल आदि को लेकर दोष देना तज्जात दोष है । यह भी सामान्य दोष की अपेक्षा विशेष है । जन्म, कर्म, मर्म आदि से इसके अनेक भेद हैं । दोष - 'पहले कहे हुए मति भंग आदि आठ दोषों को सामान्य रूप से न लेकर आठ भेद लेने से यह भी विशेष दोष है । अथवा अनेक प्रकार के दोष यहाँ दोष शब्द से लिये गये हैं । एकार्थिक - एकार्थक शब्दों का भिन्न भिन्न अर्थ करना । कारण दोष - कार्य कारण का यथार्थ भेद न करना । प्रत्युत्पन्न दोष - अतीत और भविष्यत्काल को छोड़ कर वर्तमान काल में लगने वाला दोष । नित्य दोष - जिस दोष के आदि और अन्त न हो अथवा वस्तु को एकान्त नित्य मानने पर जो दोष लगते हैं उन्हें नित्यदोष कहते हैं । अधिक दोष - दूसरों को ज्ञान कराने के लिए प्रतिज्ञा, हेतु, दृष्टान्त आदि जितनी बातों की आवश्यकता है उससे अधिक कहना अधिकदोष है । आत्मकृत दोष - जो दोष स्वयं किया हो उसे आत्मकृतदोष कहते हैं । उपनीत दोष - जो दोष दूसरे द्वारा लगाया गया हो उसे उपनीतदोष कहते हैं।
शुद्ध वागनुयोग दसविहे सुद्ध वायाणुओगे पण्णते तंजहा - चंकारे, मंकारे, पिंकारे, सेयंकरे, सायंकरे, एगत्ते, पुहत्ते, संजूहे, संकामिए, भिण्णे ।
दान
दसविहे दाणे पण्णत्ते तंजहा -
अणुकंपा संग्गहे चेव, भए कालुणिए इवा । लज्जाए गारवेणं च, अहम्मे पुण सत्तमे ॥ धम्मे य अट्ठमे वुत्ते, काही इ य कतंति य ।
गति दस दसविहा गई पण्णत्ता तंजहा - णिरयगई, णिरयविग्गहगई, तिरियगई, तिरिय विग्गहगई एवं जाव सिद्धिगई, सिद्धि विग्गहगई।
दस मुंडा पण्णता तंजहा - सोइंदियमुंडे, जाव फासिंदियमुंडे, कोहमुंडे जाव लोभमुंडे, दसमे सिरमुंडे।
दस संख्यान दसविहे संखाणे पण्णते तंजहा -
परिकम्मं ववहारो रज्जू रासी कलासवण्णे य । जावं ताव इ वग्गो घणो य तह वग्गवग्गो वि कप्पो य॥ १२८॥
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