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________________ २९५LE : श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000 दोष दसविहे दोसे पण्णत्ते तंजहा - तग्जाय दोसे मतिभंग दोसे, पत्यार दोसे परिहरण दोसे । सलक्खण कारण हेउ दोसे, संकामणं णिग्गह वत्थु दोसे ॥ २॥ विशेष दसविहे विसेसे पण्णत्ते तंजहा वत्थुतज्जाय दोसे य, दोसे एगट्ठिए इ य । कारणे य पडुप्पण्णे, दोसे णिच्चे हिय ठुमे ॥ ३॥ अत्तणा उवणीए य, विसेसे इ य ते दस ॥ १२७॥ .. कठिन शब्दार्थ - अणुजोग गए - अनुयोग गत, सव्वपाणभूय जीवसत्तसुहावहे - सर्व प्राण भूत जीव सत्त्व सुखावह, सत्थे - शस्त्र, लोणं - लवण (नमक), सिणेहो - स्नेह, अंबिल - अम्ल, दुप्पउत्तो- दुष्प्रयुक्त, तजाय दोसे - तज्जात दोष, सलक्खण - सलक्षण, संकामणं - संक्रामण, पत्थार दोसे - प्रशास्तु दोष । भावार्थ - दृष्टिवाद के दस नाम कहे गये हैं यथा - १. दृष्टिवाद - जिसमें भिन्न भिन्न दर्शनों का स्वरूप बताया गया हो, २. हेतुवाद - जिसमें अनुमान के पांच अवयवों का स्वरूप बताया गया हो । ३. भूतवाद - जिसमें सद्भूत पदार्थों का वर्णन किया गया हो। ४. तत्त्ववाद - जिसमें तत्त्वों का वर्णन हो अथवा तथ्यवाद - जिसमें तथ्य यानी सत्य पदार्थों का वर्णन हो । ५. सम्यग्वाद - जिसमें वस्तुओं का सम्यग् स्वरूप बतलाया गया हो । ६. धर्मवादः - जिसमें वस्तु के पर्यायों का अथवा चारित्र का वर्णन किया गया हो । ७. भाषाविजयवाद - जिसमें सत्य, असत्य आदि भाषाओं का वर्णन किया गया हो । ८. पूर्वगत वाद - जिसमें उत्पाद आदि चौदह पूर्वो का वर्णन किया गया हो । ९. अनुयोगगतवाद - अनुयोग दो तरह का है - प्रथमानुयोग और गण्डिकानुयोग । तीर्थङ्करों के पूर्वभव आदि का जिसमें वर्णन किया गया हो उसे प्रथमानुयोग कहते हैं । भरत चक्रवर्ती आदि वंशजों के मोक्षगमन का और अनुत्तर विमान आदि का वर्णन जिसमें हों उसे गण्डिकानुयोग कहते हैं। इन दोनों अनुयोगों का जिसमें वर्णन हो उसे अनुयोगगतवाद कहते हैं । १०. सर्व प्राणभूतजीव सत्त्व सुखावह - बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चौइन्द्रिय को प्राण कहते हैं । वनस्पति को भूत कहते हैं। पञ्चेन्द्रिय प्राणियों को जीव कहते हैं । पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय और वायुकाय को सत्त्व कहते हैं। इन सब प्राणियों को सुख का देने वाला वाद सर्व प्राण भूत जीव सत्त्व सुखावह वाद कहते हैं । शस्त्र - जिससे प्राणियों की हिंसा हो उसे शस्त्र कहते हैं वह शस्त्र दस प्रकार का कहा गया है यथा - १. अग्नि - अपनी जाति से भिन्न विजातीय अग्नि की अपेक्षा स्वकाय शस्त्र है । पृथ्वीकाय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
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