________________
स्थान १०
३१९ 000000000000000000000000000000000000000000000000000 सामग्री आदि की प्रतिकूलता के कारण दुःख रूप भी हो सकते हैं किन्तु संयम तो सदा सुखकारी ही है। अतः यह सच्चा सुख है। कहा भी है -
नैवास्ति राजराज्यस्य, तत्सुखं नैव देवराजस्य। यत्सुखमिहैव साधोलॊकव्यापाररहितस्य॥ .
अर्थात् - इन्द्र और नरेन्द्र को जो सुख नहीं है वह सांसारिक झंझटों से रहित निर्ग्रन्थ साधु को है। एक वर्ष के दीक्षित साधु को जो सुख है वह सुख अनुत्तर विमानवासी देवताओं को भी नहीं है। संयम के अतिरिक्त दूसरे आठों सुख केवल दुःख के प्रतीकार मात्र है और वे सुख अभिमान के उत्पन्न करने वाले होने से वास्तविक सुख नहीं हैं। वास्तविक सच्चा सुख तो संयम ही है।
१०. अनाबाध सुख - आबाधा अर्थात् जन्म, जरा (बुढ़ापा), मरण, भूख, प्यास आदि जहाँ न हों उसे अनाबाध सुख कहते हैं। ऐसा सुख मोक्षसुख है। यही सुख वास्तविक एवं. सर्वोत्तम सुख है। इससे अधिक कोई सुख नहीं है। जैसा कि कहा है -
नवि अस्थि माणुसाणं, तं सोक्खं न वि य सव्व देवाणं । जं सिद्धाणं सोक्खं; अव्वाबाहं उवगयाणं॥
अर्थात् - जो सुख अव्याबाध स्थान (मोक्ष) को प्राप्त सिद्ध भगवान् को है वह सुख देव या मनुष्य किसी को भी नहीं है। अतः मोक्ष सुख सब सुखों में श्रेष्ठ है और चारित्र सुख (संयम सुख) सर्वोत्कृष्ट मोक्ष सुख का साधक है। इसलिए दूसरे आठ सुखों की अपेक्षा चारित्र सुख श्रेष्ठ है किन्तु मोक्ष सुख तो चारित्र सुख से भी बढ़ कर है। अतः सर्व सुखों में मोक्ष सुख ही सर्वोत्कृष्ट एवं परम सुख है।
उपघात दस- संयम के लिए साधु द्वारा ग्रहण की जाने वाली अशन, पान, वस्त्र, आदि वस्तुओं में किसी प्रकार का दोष होना उपघात कहलाता है। इसके दस भेद हैं - - १. उद्गमोपघात - उद्गम के आधाकर्मादि सोलह दोषों से अशन (आहार), पान तथा स्थान आदि की अशुद्धता उद्गमोपघात कहलाती है। आधाकर्मादि सोलह दोषों का वर्णन पूर्व में किया जा चुका है।
२. उत्पादनोपघात - उत्पादना के धात्री आदि सोलह दोषों से आहार पानी आदि की अशुद्धता उत्पादनोपघात कहलाती है। धात्र्यादि दोषों का वर्णन पूर्व में किया जा चुका है। . ३. एषणोपघात - एषणा के शङ्कितादि दस दोषों से आहार पानी आदि की अशुद्धता (अकल्पनीयता) एषणोपघात कहलाती है। एषणा के दस दोषों का वर्णन पूर्व में किया जा चुका है।
४. परिकर्मोपघात - वस्त्र, पात्रादि के छेदन और सीवन से होने वाली अशुद्धता परिकर्मोपघात कहलाती है। वस्त्र का परिकर्मोपघात इस प्रकार कहा गया है -
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org