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श्री स्थानांग सूत्र
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आयु ही सुखस्वरूप है। अशुभ दीर्घायु तो सुखरूप न होकर दुःख रूप ही होती है । सब सुखों का सामग्री प्राप्त हो किन्तु यदि दीर्घायु न हो तो उन सुखों का इच्छानुसार अनुभव नहीं किया जा सकता। इसलिए शुभ दीर्घायु का होना द्वितीय सुख है।
३. आढ्यत्व - आढ्यत्व नाम है विपुल धन सम्पत्ति का होना। धन सम्पत्ति भी सुख का कारण है । इसलिए धन सम्पत्ति का होना तीसरा सुख माना गया है।
४. काम - पाँच इन्द्रियों के विषयों में से शब्द और रूप काम कहे जाते हैं । यहाँ पर भी शुभ विशेषण समझना चाहिए अर्थात् शुभ शब्द और शुभ रूप ये दोनों सुख का कारण होने से सुख माने गए हैं।
५. भोग - पाँच इन्द्रियों के विषयों में से गन्ध, रस और स्पर्श भोग कहे जाते हैं । यहाँ भी शुभ गन्ध शुभ रस और शुभ स्पर्श का ही ग्रहण किया गया है। इन तीनों चीजों का भोग किया जाता है इसलिए ये भोग कहलाते हैं। ये भी सुख के कारण हैं। कारण में कार्य्य का उपचार करके इन को सुख रूप माना है।
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६. सन्तोष - अल्प इच्छा को सन्तोष कहा जाता है । चित्त की शान्ति और आनन्द का कारण होने से सन्तोष वास्तव में सुख है। जैसे कहा है कि आरोग्गसारिअं माणुसत्तणं, सच्चसारिओ धम्मो । विज्जा निच्छयसारा सुहाई संतोससाराई ॥
अर्थात् - मनुष्य जन्म का सार आरोग्यता है अर्थात् शरीर की नीरोगता होने पर ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन पुरुषार्थ चतुष्टयों में से किसी भी पुरुषार्थ की साधना की जा सकती है। धर्म का सार सत्य है। वस्तु का निश्चय होना ही विद्या का सार है और सन्तोष ही सब सुखों का सार है।
७. अस्ति सुख - जिस समय जिस पदार्थ की आवश्यकता हो उस समय उसी पदार्थ की प्राप्ति होना यह भी एक सुख है क्योंकि आवश्यकता के समय उसी पदार्थ की प्राप्ति हो जाना बहुत बड़ा सुख है।
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८. शुभ भोग - अनिन्दित (प्रशस्त) भोग शुभ भोग कहलाते हैं। ऐसे शुभ भोगों की प्राप्ति और उन काम भोगादि विषयों में भोग क्रिया का होना भी सुख है । यह सातावेदनीय के उदय से होता है इसलिए सुख माना गया है।
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९. निष्क्रमण - निष्क्रमण नाम दीक्षा (संयम) का है। अविरति रूप जंजाल से निकल कर भागवती दीक्षा को अंगीकार करना ही वास्तविक सुख है, क्योंकि सांसारिक झंझटों में फंसा हुआ प्राणी स्वात्म कल्याणार्थ धर्म ध्यान के लिए पूरा समय नहीं निकाल सकता तथा पूर्ण आत्मशान्ति भी प्राप्त नहीं कर सकता । अतः संयम स्वीकार करना ही वास्तविक सुख है क्योंकि दूसरे सुख तो कभी किसी
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