SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 296
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७९ स्थान ९ 000000000000000000000000000000000000000000000000000 अहं तीसंवासाइं अगारवांसमझे वसित्ता मुंडे भवित्ता जाव पव्वइए, दुवालस संवच्छराइं तेरस पक्खा छउमत्थपरियागं पाउणित्ता तेरसेहिं पक्खेहिं ऊणगाइं तीसं वासाइं केवलिपरियागं पाउणित्ता बायालीसं वासाइं सामण्णपरियागं पाउणित्ता बावत्तरि वासाइं सव्वाउयं पालित्ता सिग्झिस्सं जाव सव्वदुक्खाण मंतं करेस्सं। एवामेव महापउमे वि अरहा तीसं वासाइं अगारवासमझे वसित्ता जाव पविहिइ, दुवालस संवच्छराइं, जाव बावत्तरिवासाइं सव्वाउयं पालित्ता सिज्झिहिइ जाव सव्वदुक्खाणमंतं काहिइ । जं सीलमायारो अरहा तित्थयरो महावीरो । - तस्सीलसमायारो होइ उ अरहा महापउमे ॥ १ ॥ ११२॥ कठिन शब्दार्थ - कालोभासे - काली प्रभा वाला, दुरहियासं - दुःसह, वेयङगिरिपायमूले - वैतात्य पर्वत के पास में, सुकुमालपाणिपायं - सुकोमल हाथ पैर वाले, भारग्गसो - भार प्रमाण, कुंभग्गसो - कुम्भ प्रमाण, गोण्णं - गुण संयुक्त, गुणणिप्फणं- गुण निष्पन, महेसक्खा - महान् ऐश्वर्य वाले, राइसरतलवरमाडंबियकोडुंबियइब्भसेट्ठिसेणावइसत्थवाहप्पभिइओ- राजा, युवराज, माडंबिक, कौटुम्बिक, इभ्य, सेठ, सेनापति, सार्थवाह आदि, सदाविहिंति - सम्बोधित करेंगे, सेयसंखतलविमलसण्णिगासे - निर्मल शंख के समान सफेद, अइज्जाहि - आवेगा, णिज्जाहि - जावेगा, गुरुमहत्तरेहिं - बड़े पुरुषों की, जीयकप्पिएहिं - जीतकल्प वालों से, सस्सिरीआहिं - शोभनीयों से, वग्गुहि - वचनों से, अभिणंदिज्जमाणे - अभिनंदन किये जाते हुवें, अभिथुवमाणे - स्तुति किये जाते हुवें, छिण्णगंथे - छिन्नग्रंथ-बाह्य आभ्यंतर परिग्रह से रहित, णिरुवलेवे - निरुपलेप, कंसपाईव - कांस्यपात्री की तरह, मुक्कतोए - स्नेह रहित, सहुयहुयासणे - भली प्रकार घृतादि की आहुति दी हुई अग्नि, उग्गहेइ - औपग्रहिक, पग्गहिएइ - प्रग्रहिक, पडिबंधे - प्रतिबन्ध, सुचिभूए - शुचिभूत-शुद्ध भावपूर्वक, अप्पगंथे - परिग्रह से रहित, तवगुणसुचरियसोवचियफलपरिणिव्याणमग्गेणंतप, गुण, सुचरित्र, शौच आदि मोक्षदायक गुणों से। भावार्थ - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी अपने साधुओं को सम्बोधित करके फरमाते हैं कि - हे आर्यो ! यह श्रेणिक राजा जिसका दूसरा नाम * भिंभिसार है, जिसने इस भव में तीर्थङ्करगोत्र उपार्जन किया है, वह काल के समय काल करके यानी यहाँ की आयु पूरी करके इस रत्नप्रभा नामक पहली नरक के श्रीमन्तक नामक नरकावास में चौरासी हजार की स्थिति वाला नैरयिक रूप से उत्पन्न होगा । * श्रेणिक. राजा ने बचपन में घर से भिंभि यानी जयढक्का - डमरू निकाली थी । इसलिए पिता ने उसको भिंभिसार कह कर पुकारा था । इसलिए श्रेणिक राजा के नाम के पीछे भिंभिसार विशेष लगता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy