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किसी आचार्य का मत है कि ३२ पुत्र उत्पन्न हुए थे ।
९. रेवती - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को औषध देने वाली ।
विहार करते हुए श्रमण भगवान् महावीर स्वामी एक बार मेढिक नाम के गाँव में आए। वहाँ उन्हें पित्तज्वर हो गया। सारा शरीर जलने लगा। आव पड़ने लगे। लोग कहने लगे, गोशालक ने अपने तप के तेज से श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का शरीर जला डाला। छह महीने के अन्दर इनका देहान्त हो जायगा। वहीं पर सिंह नाम का मुनि रहता था। आतापना के बाद वह सोचने लगा, मेरे धर्माचार्य श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को ज्वर हो रहा है। दूसरे लोग कहेंगे, श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को गोशालक ने अपने तेज से अभिभूत कर दिया । इसलिए आयु पूरी होने के पहले ही काल कर गए। इस प्रकार की भावना से उसके हृदय में दुःख हुआ । एक वन में जाकर जोर जोर से रोने लगा। भगवान् ने दूसरे स्थविरों के द्वारा उसे बुलाकर कहा - 'सिंह ! तुमने जो कल्पना की है वह नहीं होगी । मैं कुछ कम सोलह वर्ष की कैवल्य पर्याय को पूरा करूंगा।'
स्थानांग सूत्र
नगर में रेवती नाम की गाथापत्नी (गृहपत्नी) ने दो पाक तैयार किए हैं। उनमें कूष्माण्ड अर्थात् कोहलापाक मेरे लिए तैयार किया है। उसे मत लाना। वह अकल्पनीय है। दूसरा बिजौरा पाक घोड़ों की वायु दूर करने के लिए तैयार किया है। उसे ले आओ।
रेवती ने बहुमान के साथ आत्मा को कृतार्थ समझते हुए बिजौरा पाक मुनि को बहरा दिया। मुनि ने लाकर भगवान् को दिया। उसके खाने से रोग दूर हो गया। सभी मुनि तथा देव प्रसन्न हुए। रेवती ने तीर्थंकर गोत्र बाँधा ।
चतुर्याम धर्म के प्ररूपक (भावी तीर्थंकर)
एस णं अज्जो ! कण्हे वासुदेवे, रामे बलदेवे, उदए पेढालपुत्ते, पोट्टिले सयए गाहावई, दारुए णियंठे, सच्चई णियंठीपुत्ते, सावियबुद्धे अंबडे परिव्वायए अज्जा वि णं सुपासा पासावच्चिज्जा आगमिस्साए उस्सप्पिणीए चाउज्जामं धम्मं पण्णवत्ता सिज्झिहिंति जाव अंतं कार्हिति ॥ १११ ॥
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कठिन शब्दार्थ - चाउज्जामं चतुर्याम धर्म को, पण्णवत्ता प्ररूपणा करके, सावियबुद्धे - श्राविका द्वारा प्रतिबोधित, परिव्वायए परिव्राजक ।
भावार्थ - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी साधुओं को सम्बोधित करके फरमाते हैं कि हे आर्यो ! आगामी उत्सर्पिणी में ये नौ जीव चतुर्याम चार महाव्रत धर्म की प्ररूपणा करके सिद्ध होंगे यावत् सब दुःखों का अन्त करेंगे । उनके नाम इस प्रकार हैं- कृष्णवासुदेव, राम बलदेव, उदकं पेढालपुत्र, पोट्टिल, शतक गाथापति, दारुक निर्ग्रन्थ, निर्ग्रन्थीपुत्र सत्यकि, सुलसा श्राविका से प्रतिबोध पाया हुआ अम्बड़ परिव्राजक । और भगवान् पार्श्वनाथ स्वामी की शिष्यानुशिष्या सुपार्वा आर्या ।
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