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स्थान८
२२३ 000000000000000000000000000000000000000000000000000 में सुख से रहना चाहिए। सुख से ही सुख की उत्पत्ति हो सकती है, तपस्या आदि दुःख से नहीं। जैसे सफेद तन्तुओं से बनाया गया कपडा ही सफेद होता है. लाल तन्तओं से बनाया हआ नहीं। इसी तरह दुःख से-सुख की उत्पत्ति नहीं हो सकती है। इस प्रकार संयम और तप का खण्डन करने वाले सातवादी कहलाते हैं। समुच्छेदवादी अर्थात् वस्तु प्रत्येक क्षण में सर्वथा नष्ट होती रहती है, किसी भी अपेक्षा से नित्य नहीं है, इस प्रकार वस्तु का समुच्छेद मानने वाले बौद्ध आदि। नियतवादी अर्थात् सभी पदार्थों को नित्य मानने वाले सांख्य और योगदर्शन वाले नियतवादी कहलाते हैं। परलोक नास्तित्ववादी - चार्वाक दर्शन परलोक वगैरह को नहीं मानता है। आत्मा को भी पांच भूत स्वरूप ही मानता है। इसके मत में संयम आदि की कोई आवश्यकता नहीं है। इसे परलोक नास्तित्ववादी कहते हैं। महानिमित्त - जिसके द्वारा भूत भविष्यत् और वर्तमान काल की बातें जानी जा सके उसको महानिमित्त कहते हैं। वह महानिमित्त आठ प्रकार का कहा गया है यथा-भौम - भूमि में किसी तरह की हलचल या और किसी लक्षण से शुभाशुभ जानना। उत्पात - रुधिर या हड्डियाँ आदि की वृष्टि होना, स्वप्न - अच्छे या बुरे स्वप्न से शुभाशुभ बताना । आन्तरिक्ष - आकाश में होने वाला निमित्त । अङ्ग - शरीर के किसी अङ्ग के स्फुरण आदि से शुभाशुभ का जानना। स्वर - षड्ज आदि सात स्वरों से शुभाशुभ बताना। लक्षण - स्त्री पुरुषों की रेखा या शरीर की बनावट आदि से शुभाशुभ बताना । व्यञ्जन - शरीर के तिल मस आदि से शुभाशुभ बताना ।
वचन विभक्ति - कर्ता कर्म आदि का विभाग आठ प्रकार का कहा गया है यथा - १. निर्देश करने में प्रथमा विभक्ति होती है । जैसे - वह है, यह है, मैं हूँ । २. द्वितीया विभक्ति उपदेश में होती है जैसे - इसको कहो । उस कार्य को करो । ३. तीसरी विभक्ति करण यानी क्रिया के व्यापार को पूरा करने वाले सांधन में होती है । जैसे - तेन नीतं यानी उसके द्वारा ले जाया गया, मेरे द्वारा किया गया । ४. चौथी विभक्ति सम्प्रदान में और नमः आदि के योग में होती है । जैसे 'भिक्षवे भिक्षां ददाति' साधु के लिए भिक्षा देता है 'नमः सिद्धेभ्यः' सिद्ध भगवन्त के लिए नमस्कार हो। ५. अपादान में पञ्चमी विभक्ति होती है. । जैसे - तस्मात् अपनय यानी वहाँ से अमुक वस्तु दूर करो । यहाँ से अमुक वस्तु लो। वृक्षात् पत्रं पतति' अर्थात् वृक्ष से पत्ता गिरता है। पंचमी विभक्ति दूर होने में आती है। ६. स्वामी के साथ सम्बन्ध बतलाने में छठी विभक्ति होती है यथा - 'तस्य इदं पुस्तकं' अर्थात् यह उसकी पुस्तक है। 'अयं राज्ञ पुरुषः' गच्छति अर्थात् यह राजा का पुरुष जाता है। ७. आधार अर्थ में सातवीं विभक्ति होती है । जैसे- 'घटे जलं अस्ति' अर्थात् उस घडे में जल है। 'अस्मिन् घटे घृतं अस्ति' अर्थात् इस घडे में घी है। ८. आमन्त्रण में यानी किसी को पुकारने में आठवीं विभक्ति यानी सम्बोधन होता है । जैसे - हे युवन् ! अर्थात् हे जवान पुरुष । इन सातों विभक्तियों में हिन्दी में अलग अलग चिह्न लगते हैं। जैसे कि - १. पहली विभक्ति में (कर्ता) में कोई चिह्न नहीं लगता है। जैसे कि राम पढ़ता है,
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