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________________ २१८ श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000 चक्रवर्ती की एक एक महानिधि आठ आठ चक्रों से युक्त है और * आठ आठ योजन की ऊंची है। आठ समितियाँ कही गई है यथा - ईर्या समिति, भाषा समिति, एषणा समिति, आदान भाण्ड मात्र निक्षेपणा समिति उच्चार प्रस्रवण खेल जल्ल सिंघाण परिस्थापनिका समिति मन समिति, वचन समिति, काय समिति । विवेचन - गणिसम्पदा - साधु अथवा ज्ञान आदि गुणों के समूह को गण कहा जाता है। गण के धारण करने वाले को गणी कहते हैं। कुछ साधुओं को अपने साथ लेकर आचार्य की आज्ञा से जो अलग विचरता है, उन साधुओं के आचार विचार का ध्यान रखता हुआ जगह-जगह धर्म का प्रचार करता है वही गणी कहा जाता है। अथवा आचार्य को ही गणी कहा जाता है। गणी में जो गण होने चाहिएं उन्हें गणिसम्पदा कहते हैं। इन गुणों का धारक ही गणीपद के योग्य होता है। वे सम्पदाएं आठ हैं - १. आचार सम्पदा २. श्रुत सम्पदा ३. शरीर सम्पदा ४. वचन सम्पदा ५. वाचना सम्पदा ६. मति सम्पदा ७. प्रयोग मति सम्पदा ८. संग्रहपरिज्ञा सम्पदा। १. आचार सम्पदा - चारित्र की दृढ़ता को आचार सम्पदा कहते हैं। इसके चार भेद हैं - (क) संयम क्रियाओं में ध्रुव योग युक्त होना अर्थात् संयम की सभी क्रियाओं में मन वचन और काया को स्थिरतापूर्वक लगाना। (ख) गणी की उपाधि मिलने पर अथवा संयम क्रियाओं में प्रधानता के कारण कभी गर्व न करना। सदा विनीतभाव से रहना। (ग) अप्रतिबद्ध विहार अर्थात् प्रतिबन्ध रहित होकर आगमानुसार विहार करना। चौमासे के अतिरिक्त कहीं अधिक दिन न ठहरना। एक जगह अधिक दिन ठहरने से संयम में शिथिलता आ जाने की संभावना रहती है। (घ) अपना स्वभाव बड़े बूढ़े व्यक्तियों सा रखना अर्थात् कम उमर होने पर भी चञ्चलता न करना। गम्भीर विचार तथा दृढ़ स्वभाव रखना। - २. श्रुत सम्पदा - श्रुत ज्ञान ही श्रुतसम्पदा है। अर्थात् गणी को बहुत शास्त्रों का ज्ञान होना चाहिए। इसके चार भेद हैं - (क) बहुश्रुत अर्थात् जिसने सब सूत्रों में से मुख्य मुख्य शास्त्रों का अध्ययन किया हो, उनमें आए हुए पदार्थों को भली भांति जान लिया हो और उनका प्रचार करने में समर्थ हो। (ख) परिचितश्रुत - जो सब शास्त्रों को जानता हो या सभी शास्त्र जिसे अपने नाम की तरह याद हों। जिसका उच्चारण शुद्ध हो और जो शास्त्रों के स्वाध्याय का अभ्यासी हो। (ग) विचित्रश्रुत - अपने और दूसरे मतों को जान कर जिसने अपने शास्त्रीयज्ञान में विचित्रता उत्पन्न करली हो। जो सभी दर्शनों की तुलना करके भली भांति ठीक बात बता सकता हो। जो सुललित उदाहरण तथा अलंकारों से अपने व्याख्यान को मनोहर बना सकता हो तथा श्रोताओं पर प्रभाव डाल सकता हो, उसे विचित्रश्रुत कहते हैं। (घ) घोषविशुद्धिश्रुत - शास्त्र का उच्चारण करते समय उदात्त, अनुदात्त, स्वरित, हस्व, दीर्घ * प्रत्येक महानिधि नव नव योजन की चौड़ी और बारह बारह योजन की लम्बी होती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
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