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श्री स्थानांग सूत्र
• पिण्डषणाएं पानैषणाएँ प्रतिमाएँ सत्त पिंडेसणाओ पण्णत्ताओ । सत्त पाणेसणाओ पण्णत्ताओ । सत्त उग्गहपडिमाओ पण्णत्ताओ । सत्त सत्तिक्कया पण्णत्ता । सत्त महझयणा पण्णत्ता। सत्तसत्तमिया णं भिक्खुपडिमा एगूण पण्णयाए राइदिएहिं एगेण य छण्णउएणं भिक्खासएणं अहासुत्तं जाव आराहिया वि भवइ॥६२॥ .
कठिन शब्दार्थ - जोणिसंग्गहे - योनि संग्रह, संसेयया (संसेइमा) - संस्वेदज, उब्भिया - उद्भिज, संग्गहठाणा - संग्रह स्थान, अणुप्पण्णाइं - अप्राप्त, पुव्वुप्पण्णाई - पूर्व उत्पा, उवगरणाइंउपकरणों की, पिण्डेसणाओ - पिण्डैषणाएं, पाणेसणाओ - पानैषणाएं, उग्गहपडिमाओ - 'अवग्रह प्रतिमाएं, सत्तिक्कया - सप्तकक, महज्झयणा - महा अध्ययन, सत्तसत्तमिया - सप्तसप्तमिका, राइदिएहिं - रात्रि और दिन में ।
भावार्थ - योनि संग्रह यानी उत्पत्ति के स्थानों में उत्पन्न होने वाले जीव सात प्रकार के कहे गये हैं । यथा - अण्डज, पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेदज, सम्मूछिम और उद्भिज । अण्डज यानी अण्डे से उत्पन्न होने वाले जीव सात गति वाले और सात आगति वाले कहे गये हैं । यथा - अण्डज जीवों में उत्पन्न होने वाला अण्डज जीव अण्डज जीवों से अथवा पोतज जीवों से यावत् उद्भिज जीवों से आकर उत्पन्न होता है । वही अण्डजपने को छोड़ता हुआ अण्डज जीव अण्डज रूप से, पोतज रूप से यावत् उद्भिज रूप से जाकर उत्पन होता है । पोतज जीव सात गति वाले और सात आगति वाले कहे गये हैं। इसी तरह उद्भिज तक सातों प्रकार के जीवों में सात गति और सात आगति कह देनी चाहिए । __गण यानी गच्छ में आचार्य और उपाध्याय के सात संग्रह स्थान कहे गये हैं अर्थात् इन सात बातों का ध्यान रखने से वे शिष्यों का संग्रह कर सकते हैं और संघ में व्यवस्था रख कर साधुओं को नियमानुसार आज्ञा में चला सकते हैं । वे इस प्रकार हैं - आचार्य उपाध्याय को चाहिए कि वे अपने गच्छ में आज्ञा और धारणा का सम्यक् प्रयोग करावें, इत्यादि पांच बातें जैसे पांचवें ठाणे में कही हैं वैसे यहां पर भी जान लेना चाहिए । यावत् आचार्य उपाध्याय को अपने गच्छ में दूसरे साधुओं को पूछ कर काम करना चाहिए अथवा शिष्यों से उनके दैनिक कार्य के लिए पूछते रहना चाहिए किन्तु बिना पूछे कोई काम नहीं करना चाहिए । आचार्य उपाध्याय को अप्राप्त आवश्यक उपकरणों की प्राप्ति के लिए सम्यक् प्रकार व्यवस्था करनी चाहिए । आचार्य उपाध्याय को पूर्व प्राप्त उपकरणों की रक्षा का सम्यक् प्रकार से ध्यान रखना चाहिए किन्तु उनकी रक्षा की तरफ असावधानी नहीं करनी चाहिए । आचार्य उपाध्याय के अपने गच्छ में सात असंग्रह स्थान कहे गये हैं । यथा - आचार्य उपाध्याय अपने गण में आज्ञा और धारणा का सम्यक् प्रकार प्रयोग न करा सकते हों । यावत् प्राप्त हुए उपकरणों की सम्यक्
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