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- स्थान ७ 000000000000000000000000000000000000000000000000000 तेउकाइया, वाउकाइया इच्चेएहिं चउहिं जीवणिकाएहिं मिच्छादंडं पवत्तेइ, सत्तमे विभंगणाणे॥६१॥
कठिन शब्दार्थ - विभंगणाणे - विभंगज्ञान, लोयाभिगमे - लोकाभिगम - लोक को जानना, मुदग्गे - बाह्य और आभ्यन्तर पुद्गलों से बना हुआ शरीर, समुप्पण्णेणं - समुत्पन्न - उत्पन्न हुए, अइवाएमाणे- हिंसा करते हुए, अदिण्ण- माइयमाणे - चोरी करते हुए, परियाइत्ता - ग्रहण करके, फुरित्ता - स्फुरण करके, फुट्टित्ता-स्फोटन करके, फुडं - स्पृष्ट, एयंतं - कांपते हुए, खुब्भंतं - क्षुब्ध होते हुए, सम्मुवगया - सम्यक् ज्ञात । .
भावार्थ - विभंगज्ञान-मिथ्यात्व युक्त अवधिज्ञान सात प्रकार का कहा गया है । यथा - लोक को एक ही दिशा में जानना, लोक को पांच दिशाओं में जानना । क्रिया ही कर्म है और वही जीव का आवरण है ऐसा मानना । जीव पुद्गल रूप ही है, ऐसा मानना । जीव पुद्गल रूप नहीं है ऐसा मानना जीव रूपी है, ऐसा मानना । ये सभी जीव हैं । अब इन सातों विभंगज्ञानों का स्वरूप कहा जाता है उनमें से पहले विभङ्ग ज्ञान का स्वरूप इस प्रकार है - १. जब तथारूप यानी मिथ्यात्वी बाल तपस्वी को अज्ञान तप के द्वारा विभंगज्ञान उत्पन्न होता है तब वह उस उत्पन्न हुए विभङ्ग ज्ञान के द्वारा पूर्व, पश्चिम दक्षिण उत्तर अथवा * ऊपर सौधर्म देवलोक तक देखता है । तब उसे ऐसा विचार होता है कि मुझे अतिशय यानी विशिष्ट ज्ञान दर्शन उत्पन्न हुआ है । उस अतिशय ज्ञान के द्वारा मैंने लोक को एक ही दिशा में देखा है । कितनेक श्रमण माहन ऐसा कहते हैं कि पांचों दिशाओं में लोक है जो ऐसा कहते हैं वे मिथ्या कहते हैं । विभङ्ग ज्ञान का यह पहला भेद हैं । २. अब विभंगज्ञान के दूसरे भेद का स्वरूप बताया जाता है - जब तथारूप यानी मिथ्यात्वी बालतपस्वी श्रमण माहन को विभंगज्ञान उत्पन्न होता है। तब वह उस विभङ्ग ज्ञान के द्वारा पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर अथवा ऊपर सौधर्म देवलोक तक देखता है। तब उसे ऐसा दुराग्रह उत्पन्न होता है कि मुझे अतिशय - विशिष्ट ज्ञान दर्शन उत्पन्न हुआ . है । मैंने अतिशय ज्ञान द्वारा जाना है कि लोक पांच दिशाओं में ही है । कितनेक श्रमण माहन कहते हैं कि लोक एक दिशा में भी है वे मिथ्या कहते हैं । यह दूसरा विभंग ज्ञान है । ३. अब तीसरे विभंग ज्ञान का स्वरूप बतलाया जाता है - जब तथारूप यानी मिथ्यात्वी बालतपस्वी श्रमण माहन को विभंगज्ञान उत्पन्न होता है, तब उस विभङ्गज्ञान द्वार वह प्राणियों की हिंसा करते हुए, झूठ बोलते हुए, चोरी करते हुए, मैथुन सेवन करते हुए, परिग्रह सञ्चित करते हुए और रात्रिभोजन करते हुए जीवों को देखता है किन्तु किये जाते हुए पाप कर्म को कहीं नहीं देखता है तब उसे ऐसा दुराग्रह उत्पन्न होता है
* ऐसा बाल तपस्वी ऊपर अधिक से अधिक सौधर्म देवलोक तक देख सकता है। विभंग ज्ञानी अधोलोक में बिलकुल नहीं देख सकता है। अवधिज्ञानी भी अधोलोक में मुश्किल से देख सकता है।
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