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श्री स्थानांग सूत्र
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कठिन शब्दार्थ - उच्चार पडिक्कमणे - उच्चार प्रतिक्रमण, पासवण पडिक्कमणे - प्रस्रवण प्रतिक्रमण, इत्तरिए - इत्वर, आवकहिए - यावत्कथिक, सोमणंतिए - स्वप्नान्तिक ।.. भावार्थ - प्रतिक्रमण ग्रहण किये हुए व्रत प्रत्याख्यान में लगे हुए दोषों से निवृत्त होना प्रतिक्रमण कहलाता है । अथवा प्रमादवश पाप का आचरण हो जाने पर उसके लिए 'मिच्छामि दुक्कडं' देना अर्थात् उस पाप को अकरणीय समझ कर दुबारा न करने का निश्चय करना और पाप से सदा सावधान रहना प्रतिक्रमण है । जैसा कि कहा है
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स्वस्थानात् यत् परस्थानं प्रमादस्य वशाद् गतः । तत्रैव क्रमणं भूयः प्रतिक्रमणमुच्यते ॥ १ ॥ क्षायोपशमिकाद्भावादोदयिकस्य वशं गतः । तत्रापि च स एवार्थः प्रतिकूलगमात्स्मृतः ॥ २ ॥ अर्थ- जो आत्मा अपने ज्ञान दर्शनादि रूप स्थान प्रमाद के कारण दूसरे मिथ्यात्व आदि स्थानों में चला गया है उसका मुडकर फिर अपने स्थान में आना प्रतिक्रमण कहलाता है । अथवा जो आत्मा क्षायोपशमिक भाव से औदायिक भाव में गया है उसका फिर क्षायोपशमिक भाव में लौट आना प्रतिक्रमण कहलाता है । अथवा
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"प्रति प्रति वर्तनं वा शुभेषु योगेषु मोक्षफलदेषु। निःशल्यस्य यतेर्यत्तद्वा ज्ञेयं प्रतिक्रमणम् ॥ अर्थात् शल्य - रहित संयमी का मोक्षफल देने वाले शुभ योगों में प्रवृत्ति करना प्रतिक्रमण कहलाता है।
प्रतिक्रमण छह प्रकार का कहा गया है । यथा - :
१. उच्चार प्रतिक्रमण - उपयोग पूर्वक बडी नीत को परठ कर ईर्या का प्रतिक्रमण करना उच्चार प्रतिक्रमण है।
२. प्रस्त्रवण प्रतिक्रमण - उपयोग पूर्वक लघुनीत को परठ कर ईर्या का प्रतिक्रमण करना प्रस्रवण प्रतिक्रमण है।
३. इत्वर प्रतिक्रमण - स्वल्पकालीन जैसे दैवसिक, रात्रिक आदि प्रतिक्रमण इत्वर प्रतिक्रमण है ।
४. यावत्कथिक प्रतिक्रमण - महाव्रत तथा भक्त परिज्ञादि द्वारा सदा के लिए पाप से निवृत्ति करना यावत्कथिक प्रतिक्रमण कहलाता है ।
५. यत्किञ्चित् मिथ्या प्रतिक्रमण संयम में सावधान साधु से प्रमादवश यदि कोई असंयम रूप विपरीत आचरण हो जाय तो 'वह मिथ्या है' इस प्रकार अपनी भूल को स्वीकार करते हुए 'मिच्छामि दुक्कडं' देना यत्किञ्चिन्मिथ्या प्रतिक्रमण है।
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