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श्री स्थानांग सूत्र
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धनुष से कम रह जाती है। आयु जघन्य संख्यात वर्ष और उत्कृष्ट असंख्यात वर्ष की होती है । मृत्यु होने पर जीव स्वकृत कर्मानुसार चारों गतियों में जाते हैं। इस भाग में जीव मोक्ष भी जाते हैं।
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वर्तमान अवसर्पिणी के तीसरे आरे के तीसरे भाग की समाप्ति में जब पल्योपम का आठवां भाग शेष रह गया उस समय दस प्रकार के वृक्षों की शक्ति कालदोष से न्यून हो गई। युगलियों में द्वेष और कषाय की मात्रा बढ़ने लगी और वे आपस में विवाद करने लगे। अपने विवादों का निपटारा कराने के लिये उन्होंने सुमति को स्वामी रूप से स्वीकार किया। ये प्रथम कुलकर थे। इनके बाद क्रमश: चौदह कुलकर हुए। पहले पांच कुलकरों के शासन में हकार दंड था। छठे से दसवें कुलकर के शासन में मकार तथा ग्यारहवें से पन्द्रहवें कुलकर के शासन में धिक्कार दंड था। पन्द्रहवें कुलकर ऋषभदेव स्वामी थे। वे चौदहवें कुलकर नाभि के पुत्र थे। माता का नाम मरुदेवी था। ऋषभदेव इस अवसर्पिणी के प्रथम राजा, प्रथम जिन, प्रथम केवली, प्रथम तीर्थंकर और प्रथम धर्म चक्रवर्ती थे। इनकी आयु चौरासी लाख पूर्व थी। इन्होंने बीस लाख पूर्व कुमारावस्था में बिताए और त्रेसठ लाख पूर्व राज्य किया। अपने शासन काल में प्रजा हित के लिए इन्होंने लेख, गणित आदि ७२ पुरुष कलाओं और ६४ स्त्री कलाओं का उपदेश दिया। इसी प्रकार १०० शिल्पों और असि, मसि और कृषि रूप तीन कर्मों की भी शिक्षा दी ।
सठ लाख पूर्व राज्य का उपभोग कर दीक्षा अंगीकार की। एक हजार वर्ष तक छद्मस्थ रहे। एक हजार वर्ष कम एक लाख पूर्व केवली रहे। चौरासी लाख पूर्व की आयुष्य पूर्ण होने पर निर्वाण प्राप्त किया । भगवान् ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र भरत महाराज इस आरे के प्रथम चक्रवर्ती थे ।
४. दुषम सुषमा - यह आरा बयालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागरोपम का होता है। इस में मनुष्यों के छहों संहनन और छहों संस्थान होते हैं । अवगाहना बहुत से धनुषों की होती है और आयु जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त उत्कृष्ट एक करोड़ पूर्व की होती है। एक पूर्व सत्तर लाख करोड़ वर्ष और छप्पन हजार करोड़ वर्ष (७०५६००००००००००) अर्थात् सात नील पांच खरब और साठ अरब वर्ष का होता है। यहाँ से आयु पूरी करके जीव स्वकृत कर्मानुसार चारों गतियों में जाते हैं और कई जीव सिद्ध, बुद्ध एवं मुक्त होकर सकल दुःखों का अन्त कर देते हैं अर्थात् सिद्धि गति को प्राप्त करते हैं।
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वर्तमान अवसर्पिणी इस आरे में तीन वंश उत्पन्न हुए। अरिहन्त वंश, चक्रवर्ती वंश और दशार वंश। इसी आरे में तेईस तीर्थंकर, ११ चक्रवर्ती, ९ बलदेव, ९ वासुदेव और ९ प्रतिवासुदेव उत्पन्न हुए। दुःख विशेष और सुख कम होने से यह आरा दुषम सुषमा कहा जाता है।
५. दुषमा - पाँचवां दुषमा आरा इक्कीस हजार वर्ष का है। इस आरे में मनुष्यों के छहों संहनन तथा छहों संस्थान होते हैं। शरीर की अवगाहना ७ हाथ तक की होती हैं। आयु जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त उत्कृष्ट सौ वर्ष झाझेरी होती है। जीव स्वकृत कर्मानुसार चारों गतियों में जाते हैं। चौथे आरे में उत्पन्न हुआ कोई जीव मुक्ति भी प्राप्त कर सकता है, जैसे जम्बूस्वामी । वर्तमान पंचम आरे का तीसरा भाग
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