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________________ श्री स्थानांग सूत्र गुणस्थानवर्ती साधु का संयम सूक्ष्म सराग संयम कहलाता है। बादर कषाय जिसमें रहता है ऐसे छठे वें गुणस्थान तक के जीवों का संयम, बादर सम्पराय सराग संयम कहलाता है। क्षपक श्रेणी एवं उपशम श्रेणी पर चढने वाले साधु के परिणाम उत्तरोत्तर शुद्ध रहने से उनका सूक्ष्म सम्पराय सराग संयम विशुद्धयमान कहलाता है । उपशम श्रेणी से गिरते हुए साधु के परिणाम संक्लेश युक्त होते हैं। इसलिये उनका सूक्ष्म संपराय सराग संयम संक्लिश्यमान कहलाता है। जिस समय संयम की प्राप्ति होती है वह प्रथम समय और शेष द्वितीय आदि समय अप्रथम समय कहलाते हैं। उपशम श्रेणी वाले जीवों का संयम प्रतिपाती और क्षपक श्रेणी वाले जीवों का संयम अप्रतिपाती होता है। ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती जीव का संयम उपशान्त कषाय वीतराग संयम • कहलाता है और बारहवें गुणस्थानवर्ती जीव का संयम क्षीण कषाय वीतराग संयम कहलाता है। दुविहा पुढविकाइया पण्णत्ता तंजहा - सुहुमा चेव, बायरा चेव । एवं जाव दुविहा वणस्सइकाइया पण्णत्ता तंजहा - सुहुमा चेव बायरा चेव । दुविहा पुढविकाइया पण्णत्ता तंजहा पज्जत्तगा चेव, अपज्जत्तगा चेव । एवं जाव वणस्सइकाइया । दुविहा पुढविकाइया पण्णत्ता तंजहा - परिणया चेव, अपरिणया चेव । एवं जाव वणस्सइकाइया । दुविहा दव्वा पण्णत्ता तंजहा परिणया चेव, अपरिणया चेव । दुविहा पुढविकाइया पण्णत्ता तंजहा - गइसमावण्णगा चेव, अगइसमावण्णगा चेव । एवं जाव वणस्सइकाइया । दुविहा दव्वा पण्णत्ता तंजहा गइसमावण्णगा चेव, अगइसमावण्णगा चेव । दुविहा पुढविकाइया पण्णत्ता तंज- अणंतरोवगाढा चेव, परंपरोवगाढा चेव । जाव दव्वा ॥ २३ ॥ बादर, पज्जत्तगा - पर्याप्तक, अपज्जत्तगा कठिन शब्दार्थ- सुहुमा सूक्ष्म, बायरा अपर्याप्तक, परिणया - परिणत, अपरिणया अपरिणत, दव्वा द्रव्य, गइसमावण्णगा - गति समापन्नक, अगइसमावण्णगा अगति समापन्नक, अणंतरोवगाढा - अनन्तरावगाढ, परंपरोवगाढा ५२ 0000 - Jain Education International - - - परम्परावगाढ । भावार्थ- पृथ्वीकायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं यथा सूक्ष्म और बादर । इसी प्रकार अकायिक, तेउकायिक, वायुकायिक यावत् वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं यथा सूक्ष्म और बादर । पृथ्वीकायिक जीवों के दूसरी तरह से दो भेद कहे गये हैं यथा पर्याप्तक और अपर्याप्तक । इसी प्रकार अप्कायिक, तेठकायिक, वायुकायिक यावत् वनस्पतिकायिक तक जीवों के पर्याप्तक और अपर्याप्तक ये दो दो भेद जानना चाहिए। पृथ्वीकायिक जीवों के दूसरी तरह से दो भेद कहे गये हैं यथा परिणत यानी शस्त्र लग कर जो अचित्त हो गये हैं और अपरिणत अर्थात् For Personal & Private Use Only - - - www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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