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________________ स्थान १ उद्देशक १ 00000000 विवेचन - जम्बू वृक्ष से विशेष पहचान वाला जो द्वीप है वह जम्बूद्वीप कहलाता है। जंबूद्वीप का परिचय देते हुए सूत्रकार ने जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र में इस प्रकार पाठ दिया है - "कहि णं भंते ! जंबूद्दीवे ? के महालए णं भंते ! जंबूद्दीवे ? किं संठिए णं भंते ! जंबूद्दीवे ? किं आयारभाव पडोयारे णं जंबूद्दीवे पण्णत्ते ? गोयमा ! अयणं जंबूद्दीवे सव्वद्दीव समुद्दाणं सव्वब्धंतराए सव्वखुड्डाए, वट्टे तेयपूयसंठाण संठिए, वट्टे पुक्खरकण्णिया संठाण संठिए, वट्टे पडिपुण्ण चंद संठाण संठिए, एगं जोयणसयसहस्साइं, सोलस्स सहस्साइं दोण्णि य सत्तावीसं जोयणसए तिणि य कोसं अट्ठावीसं च धणुसयं, तेरस अंगुलाई अर्द्धगुलं च किंचि विसेसाहियं परिक्खेवेणं पण्णत्ते । " सूत्र ३ अर्थात् - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से गौतमस्वामी ने पूछा - "हे भगवन् ! जम्बूद्वीप कहाँ पर है ? जम्बूद्वीप कितना बड़ा है ? उसका आकार भाव क्या है ?" प्रभु फरमाते हैं कि - हे गौतम ! यह जंबूद्वीप सर्वद्वीप समुद्रों के मध्य में हैं। सब द्वीपों में छोटा है। वह तेल के पूए (मालपूएँ) के समान, रथ के पहिये के समान, पुष्करणी की कर्णिका के समान तथा पूर्णमासी के चन्द्र के समान गोल आकार वाला है एक लाख योजन लम्बा चौड़ा है जिसकी परिधि ३, १६, २२७ योजन तीन कोस एक सौ अठाईस धनुष और साढ़े तेरह अंगुल से कुछ विशेषाधिक है । उपरोक्त विशेषणों वाला जंबूद्वीप एक ही है जम्बूद्वीप भी हैं। इसी जम्बूद्वीप में मनुष्यों का निवास है अर्थात् इन विशेषणों से रहित दूसरे अनेक । अन्य जम्बूद्वीपों में नहीं । भगवान् महावीर स्वामी के लिए सर्वप्रथम ' श्रमण' विशेषण दिया गया है। 'श्रमु तपसि खेदे च ' • इस तप और खेद अर्थ वाली " श्रमु" धातु से 'श्रमण' शब्द बना है । ' श्राम्यति तपस्यतीति श्रमणः ' जिसका अर्थ होता है कि जो तपस्या करे और जगत् के जीवों के खेद (दुःख) को जाने, वह 4 श्रमण' कहलाता है । Jain Education International - अथवा 'समणे' शब्द की संस्कृत छाया 'समन:' भी होती है। जिसका अर्थ यह है कि जिसका मन शुभ हो, जो समस्त प्राणियों पर समभाव रखे, उसे 'समन' कहते हैं। जो ऐश्वर्यादि युक्त हो अर्थात् पूज्य हो उसे भगवान् कहते हैं । राग द्वेषादि आन्तरिक शत्रु दुर्जेय है। उनका निराकरण करने से जो महान् वीर-पराक्रमी हैं, वह महावीर कहलाता है। भगवान् का यह गुणनिष्पन्न नाम देवों द्वारा दिया गया था। जैसा कि आचारांग सूत्र के दूसरे श्रुतस्कंध के १५ वें अध्ययन में कहा है " अयले भयभेरवाणं परीसहोवसग्गाणं, खंति - For Personal & Private Use Only ३५ www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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