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श्री स्थानांग सूत्र
- जो भव में धारण किया जाता है अथवा जो भव के लिये धारण किया जाता है वह भवधारणीय अर्थात् जो जन्म से मरण पर्यन्त रहता है वह भवधारणीय शरीर कहलाता है। बंधी हुई मुष्टि को रत्नि कहते हैं और खुली अंगुलियों वाली मुष्टि को 'अरनि' कहते हैं ऐसा अर्थ होने पर भी यहां सामान्य रूप से रनि का अर्थ हाथ किया है। शुक्र और सहस्रार कल्प के देव चार हाथ प्रमाण वाले कहे गये हैं। देवों के शरीर की ऊंचाई इस प्रकार होती है -
भवण १० वण ८ जोइस ५ सोहम्मीसाणे सत्त होंति रयणीओ। ...एक्केक्कहाणि सेसे, दुदुगे य दुगे चउक्के य॥
गेविग्जेसुं दोण्णी, एक्का रयणी अणुत्तरेसु।
- दस भवनपति, आठ वाणव्यंतर, पांच ज्योतिषी और सौधर्म तथा ईशान कल्प के देवों का भवधारणीय शरीर सात हाथ का होता है। तीसरे चौथे देवलोक के देव छह हाथ, पांचवें छठे देवलोक के देव पांच हाथ, सातवें आठवें देवलोक के देव चार हाथ, नौवें से बारहवें देवलोक के देव तीन हाथ नवग्रैवेयक के देव दो हाथ और पांच अनुत्तर विमान के देवों का शरीर एक हाथ परिमाण होता है। उत्तरवैक्रिय शरीर तो उत्कृष्ट १ लाख योजन परिमाण हो सकता है। जघन्य से तो भवधारणीय शरीर उत्पत्तिकाल में अंगुल के असंख्यातवें भाग परिमाण वाले होते हैं जब कि उत्तरवैक्रिय शरीर की जघन्य अवगाहना अंगुल के संख्यातवें भाग परिमाण होती है।
चतुर्विध उदक गर्भ, मानुषी गर्भ . चत्तारि उदकगब्भा पण्णत्ता तंजहा - उस्सा, महिया, सीया, उसिणा । चत्तारि उदकगब्भा पण्णत्ता तंजहा - हेमगा, अब्भसंथडा, सीओसिणा, पंचरूविआ ।
माहे उ हेमगा गब्भा, फग्गुणे अब्भसंथडा ।
सीओसिणा उ चित्ते, वइसाहे पंच रूविआ. ॥ चत्तारि माणुस्सीगब्भा पण्णत्ता तंजहा इत्थित्ताए पुरिसत्ताए णपुंसगत्ताए बिंबत्ताए।
अप्पं सुक्कं बहुं ओयं, इत्थी तत्थ पजायइ । . अप्पं ओयं बहुं सुक्कं, पुरिसो तत्थ पजायइ ॥ दोण्हं पि रत्तसुक्काणं, तुल्लंभावे णपुंसओ ।
इत्थीओयसमाओगे, बिंबं तत्थ पजायइ ।। २०६॥ कठिन शब्दार्थ - उदकगब्भा - पानी का गर्भ, उस्सा - ओस, महिया - महिका-धूंअर, सीयाशीत, उसिणा - उष्ण, हेमगा - हिमपात, अब्भसंथडा - बादलों से आकाश का ढक जाना, पंचरूविआपंच रूपक-गरिव, बिजली, जल, हवा और बादल इन पांचों का होना, माहे - माघ में, फग्गुणे - फाल्गुन में, चित्ते - चैत्र में, वइसाहे - वैशाख में, माणुस्सीगब्भा - स्त्री गर्भ, बिंबत्ताए - बिम्ब रूप,
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