________________
४५०
श्री स्थानांग सूत्र
वादय-वादिन्त्र, झूसिरे - शुषिर, णट्टे - नाट्य, गेये - गेय-गीत, उक्खित्तए - उत्क्षिप्त, पत्तए - पत्रक, मंदए - मंदक, रोविंदए- रोविंदक, मल्ले - मालाएं, गंथिमे - ग्रंथिम-गूंथी हुई, वेढिमे - वेष्टित, पूरिमे - पूरित, संघाइमे - संघातिम, केसालंकारे- केशालङ्कार, अभिणए - अभिनय, दिलृतिएदाटन्तिक, पांडुसुए - पाण्डुश्रुत, सामंतोवणिए - सामंतोपनिक, लोगमझावसिए - लोक मध्यावसित। .
___भावार्थ - चार धर्म द्वार कहे गये हैं यथा - क्षान्ति यानी क्षमा, मुक्ति यानी त्याग, आर्जवभाव यानी सरलता और मार्दवभाव यानी स्वभाव की कोमलता।
महारम्भ, महापरिग्रह, पञ्चेन्द्रिय जीवों की घात और मांसाहार, इन चार कारणों से जीव नरक में जाने योग्य कर्म बांधते हैं । माया कपटाई करने से, ढोंग एवं गूढमाया करके दूसरों को ठगने की चेष्टा 'करने से, झूठ बोलने से और खोटा तोल खोटा माप करने से इन चार कारणों से जीव तिर्यञ्च योनि में
जाने योग्य कर्म बांधते हैं । प्रकृति की भद्रता यानी स्वभाव की सरलता से, प्रकृति की विनीतता से, सानुक्रोश यानी दया और अनुकम्पा के परिणामों से और मत्सर यानी ईर्षा डाह न करने से इन चार कारणों से जीव मनुष्य गति में जाने योग्य कर्म बांधते हैं। सराग संयम का पालन करने से, संयमासंयम यानी देशविरति, श्रावकपना पालन करने से, बाल तप यानी विवेक बिना अज्ञान पूर्वक कायाक्लेश आदि तप करने से और अकाम निर्जरा यानी अनिच्छापूर्वक पराधीनता आदि कारणों से कर्मों की निर्जरा करने से इन चार कारणों से जीव देवगति में जाने योग्य कर्म बांधते हैं। ___चार प्रकार के वादय - वादिन्त्र कहे गये हैं यथा - तत, वीणा आदि, वितत, पटह(ढोल)
आदि, घन, कांस्य ताल आदि, शुषिर, बांसुरी आदि । चार प्रकार के नाटय कहे गये हैं यथा - अश्चित, रिभित, आरभट भिसोल (भसोल)। चार प्रकार के गेय यानी गीत कहे गये हैं यथा - उत्क्षिप्त, पत्रक, मंदक, रोविंदक । चार प्रकार की मालाएं कही गई हैं यथा - डोरे से गूंथी हुई, वेष्टित - मुकुट यानी फूलों को लपेट कर बनाया हुआ दड़ा आदि पूरित यानी सलाई में पिरोये हुए फूलों की माला, सङ्घातिम यानी फूल और फूल की नाल से परस्पर गूंथी हुई । चार प्रकार के अलङ्कार कहे गये हैं यथा - केशालङ्कार, वस्त्रालङ्कार, माल्यालङ्कार और आभरणालङ्कार । चार प्रकार के अभिनय कहे गये हैं यथा- दालन्तिक, पाण्डुश्रत, सामन्तोपनिक, लोकमध्यावसित । सनत्कुमार और माहेन्द्र यानी तीसरे और चौथे देवलोक में विमान नीले लाल पीले और सफेद इन चार वर्णों वाले होते हैं । महाशुक्र और सहस्रार यानी सातवें और आठवें देवलोक में देवों का भवधारणीय शरीर उत्कृष्ट चार रनि यानी हाथ के ऊंचे कहे गये हैं।
विवेचन - चारित्र लक्षण धर्म के चार द्वार-उपाय कहे गये हैं। यथा - १. क्षमा २. निर्लोभता ३. सरलता और ४. मार्दवता। • नरक आयु बन्ध के चार कारण - १. महारम्भ २. महापरिग्रह ३. पंचेन्द्रिय वध ४. कुणिमाहार।
१. महारम्भ - बहुत प्राणियों की हिंसा हो, इस प्रकार तीव्र परिणामों से कषाय पूर्वक प्रवृत्ति करना महारम्भ है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org