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श्री स्थानांग सूत्र .
इन चार बुद्धियों के हिन्दी में चार दोहे हैं, वे इस प्रकार हैं
औत्पत्तिकी बुद्धि - उत्पत्तिया बुद्धिबिन देखी बिन सांभली, जो कोई पूछे बात। उसका उत्तर तुरन्त दे, सो बुद्धि उत्पात ॥१॥ वैनयिकी -(विनयजा-विनिया) बुद्धिगुरुजनों का विनय करे, तीनों योगधर ध्यान । बुद्धि विनयजा वह लहे, अन्तिम पद निर्वाण॥२॥ कार्मिकी (कर्मजा-कम्मिया) बुद्धिजो करता जिस काम को, वह उसमें प्रवीण। बुद्धि कर्मजा होती वह, विज्ञ जन तुम लो जान॥३॥ पारिणामिकी (परिणामिया) बुद्धिउम्र अनुभव ज्यों ज्यों बढे, त्यों-त्यों ज्ञान विस्तार। बुद्धि परिणामी कहात वह, करत कार्य निस्तार ॥४॥
मति ज्ञान के चार भेद-१. अवग्रह २. ईहा ३. अवाय ४. धारणा। - १. अवग्रह - इन्द्रिय और पदार्थों के योग्य स्थान में रहने पर सामान्य प्रतिभास रूप दर्शन के बाद होने वाले अवान्तर सत्ता सहित वस्तु के सर्व प्रथम ज्ञान को अवग्रह कहते हैं। जैसे दूर से किसी चीज का ज्ञान होना। . २. ईहा - अवग्रह से जाने हुए पदार्थ के विषय में उत्पन्न हुए संशय को दूर करते हुए विशेष की जिज्ञासा को ईहा कहते हैं। जैसे अवग्रह से किसी दूरस्थ चीज का ज्ञान होने पर संशय होता है कि यह दूरस्थ चीज मनुष्य है या स्थाणु (ढूंठ)? ईहा ज्ञानवान् व्यक्ति विशेष धर्म विषयक विचारणा द्वारा इस संशय को दूर करता है और यह जान लेता है कि यह मनुष्य होना चाहिए। यह ज्ञान दोनों पक्षों में रहने वाले संशय को दूर कर एक ओर झुकता है। परन्तु इतना कमजोर होता है कि ज्ञाता को इससे पूर्ण निश्चय नहीं होता है और उसको तद्विषयक निश्चयात्मक ज्ञान की आकांक्षा बनी ही रहती है।
३. अवाय - ईहा से जाने हुए पदार्थों में यह वही है, अन्य नहीं हैं' ऐसा निश्चयात्मक ज्ञान को अवाय कहते हैं। जैसे यह मनुष्य ही है ढूंठ नहीं है।
- ४. धारणा - अवाय से जाना हुआ पदार्थों का ज्ञान इतना दृढ़ हो जाय कि कालान्तर में में उसका विस्मरण न हो तो उसे धारणा कहते हैं।
दर्शन के चार भेद - १. चक्षु दर्शन २. अचक्षु दर्शन ३. अवधि दर्शन ४. केवल दर्शन।
१. चक्षु दर्शन - चक्षु दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम होने पर चक्षु (आंख) द्वारा जो पदार्थों के सामान्य धर्म को ग्रहण होता है। उसे चक्षु दर्शन कहते हैं। .
२. अचक्षु दर्शन - अचक्षु दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम होने पर चक्षु के सिवाय शेष,
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